पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/१३२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२२
भारत-भारती




रुचि-विधातक ग्रन्थ ज्यों ही सैर करने को छुए,
खीयो हुई कुलटा बहुत, अनुकूल बहुधा शठ हुए !
ॐ भाव हम गिरते हुओं पर और पत्थर-से गिरे,
व कर हृदय जिनसे हमारे हो गये जर निरे ! ! ।।१६४।।

जो उपन्यास यहाँ सु-शिक्षा-प्रद कहा कर बिक रहे--
उनमें अधिक अविचार को ही नींव पर हैं दिक रहे ।
उनके कु-पात्रों में नरक की अग ऐसी जागत---
‘अपनी सु-रुचि भी पाठकों की दृर जिससे भागती ! ।।१६५।।

खाद्यन्त उनमें असम्भवता घन-घटा सी छ रहो,
दुर्भाव को दुर्गन्धि उनले अन्त तक है आ रही ।
आई कहानी भी न कहनी और हम इतना बके,
जीवन-प्रभात' न चन्द्रशेखर' एक भी हम लिख सके ! ।।१६६।।

लिक्खाड़ ऐसे ही यहाँ साहित्य-रत्न कहा रहे,
३ वीर गैतरणी नदी का हैं प्रवाह बहा रहे ।।
३ हैं नरक के दूत किंवा सूत हैं कलिज के ?
वे मित्ररूपी शत्रु ही हैं देश और समाज कें ।।१६७।।

या मुँह दिखानेंगे भा परलोक में वे ही कहें ?
जो कुछ नहीं अता उन्हें तो मौन ही फिर वे रहें !
पर मौन वे कैसे रहें, निरुपाय क्या भूखों मरे ?
३३, जय क्यों न समाज लारा, पाकटे उनकी भरे' !! ।।१६८।।