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वर्तमान खण्ड




हैं पत्र भी प्रायः परस्पर इंघ-भाव न छेड़ते,
दलबन्दियाँ करते हुए जी के फफोले फोड़ते ।
वीड़ लिये जे देश-हित का पथ हमें दिखला रहे--
हठ, पक्षपात तथा हमें कुत्सा है। सिरवला रहे ! ! ।।१६९।।

सङ्गीत


है पण्डितों की राय यहू–सङ्गीत भी साहित्य है,
अति-माने से मन के सुधा-इस वृह पिछति। नित्य है ।
विष किन्तु उसमें भी यहाँ हमनें मिला कर रख दिया,
हतभाग्य धुल घुल कर मर जिस क्रियहरस चख लिया ।।१७०।।

जो मछु मानस ३ दर थर उठाता भक्ति की---
अब स भड़काता वही मङ्गत विधयामक्ति की !
मन बने का भी विड़ा, इद रखना है इ, ॐा,
रस्त्र रम में विष मिलाना और कहते हैं किसे ? ।। १७१।।

मङ्गल में जब से मदन की भूति अङ्कित हो गई.
वह भावुके झा भन्विाई भी कलङ्कित हे। १३ ।।
करते प्रकट थे हाय ! ३ जिससे अनन्योपासना,
यदुने लगी देखो, उससे अब विषय की वासन! ! !! ।।१७२।।

गिर जाय कुछ शङ्काम्बु भी अस्पृश्य नाली में कभी, ।
फिर उसे अपवित्र ही बतायँ निश्चय सभी ।
चों भक्तिरस्ट भी सन गया अौलत के नल में,
गुड़ से बनेगा चमक यदि पड़ जाने साँस्द झाल में ।।१७३।।