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भारत-भारती




कविता तथा सङ्गीत ने हमकेा गिराया और भी,
उच पूछिए तो अब कहीं हमकेा नहीं है ठौर भो ।
हा है जो कलाएँ थी कभी अत्युच्च भावोद्गारिणी-
जेपरीतता देखा कि अब वे हैं अगतिकारिणी ! ।। १७४ ।।

सभाएँ


दिन सभाएँ भो भयङ्कर भेद-भाव वढ़ा रहीं,

  • स्ताव करके हो हमें कर्तव्य-पाठ पढ़ा रहीं है।

रस्परिक रण-रङ्ग से अवकाश उनकेा है कहाँ ?

  • त-भिन्नता’ का ‘शत्रुता' ही अर्थ कर लंजे यहाँ ! ॥ १७५ ।।


धन्द विना उनका बड़ा भर काभ कुछ चलता नहीं,
र शक है, तो भी यहाँ समुचित सु-फल फलता नहीं।
वीर एक भी बहुत जो देश-हित के व्याज से--
अपने लिए हैं प्राप्त करते दाने-मान समाज से १ ।। १७६ ।।

उप्रदेशक


मम्मान्य बनने के यह वक्तत्व अच्छी युक्ति है,
अगुआ हमार है वही जिसके गले में उक्ति है।
पदेशकां में आज कितने लोग ऐसे हैं, कहें,
पदेश के अनुसार जो वे आप भी चलते रहे है ।।१७७।।