पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/१३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२९
वर्तमान खण्ड




जो कामिनी-काश्चन ने छूटे फिर विराग रहा कहाँ ?
पर चिन्ह ते राज्य की अत्र हैं जटाओं में यहाँ !
भूम्बई मरे कि जटा रखा कर साधु कहलाने लगे,
चिमटा लिया, ‘भर्ब रमाई, माँगने-खाने ली ! ! ।। १९८।।

संख्या अनुद्योगी ज्ञने की ही न उनसे बढ़ रहा---
शुचि साधुता पर भी कुयश की कालिमा है चढ़ रहा ।
है भस्मठेपन से कहीं मन की मलिनता छुटतो ?
हा ! साधु-मर्यादा हम अब दिनोंदिन दृटतो ।। १९९ ।।

यदि ये हमारे साधु ही कर्तव्य अपना घालते
तो देश का बेड़ा भी कई पार ये कर डालते ।।
पर हाय ! इनमें ज्ञान त बस सस का ही नाम है,
दम का चिलम में ॐ उठाना मुख्य इनका का है ? ।। २०० ।।

ब्राह्मण


उन अग्रजन्मा ब्रह्म की हीनता तो देख ले,
भू-देव थे जो आज उनकी दीनता तो देख लो ।
ॐ ब्रह्म-मृति यथा जो अब मुग्ध उड़ता पर हुए,
जो पोर थे देखे, वही भिती, बर्ची, खर हुए !!! ।। २०१ ।।

वह बेबू का पढ़ना-पढ़ाना अब उनसे दीखता,
वह यज्ञ का कर-कर कैन उनमें सीखता ?
बन पेट के ही आज उनमें दान देना हे राय,
है क उनमें एक है। अब दुरि लेना रह ग १ ।। २०२।।