अल्पायु में हैं हम सुतों का ब्याह करते किस लिये ?
गार्हस्थ्य का सुख शत्र हैं। पाने लगे थे, इसलिये ।
वात्सल्य है या चौर है ग्रह, हाय ! कैसा कष्ट है ?
परिपुष्टता के पूर्व ही बलवीयर्थ होता नष्ट है ! ।।२४४।।
उस ब्रह्मचर्याश्रम-नियम का ध्यान जब से हट गया--
सम्पुर्ण शारीरिक तथा वह् मानसिक बल घट या ।
हैं हाथ ! काहे के पुरुय इम, जब कि पौरुष हैं। नहीं !
निःशक्त पुतलें भी भला पौरुष दिखा सकते कहीं ? ।। २४५ ।।
यदि ब्रह्मचर्याश्रम मिटा कर शक्ति की खोतं नहीं-
तो अज दिन मृत जातियों में राज्य हुम होते नहीं ।
करते नवचिकर जैसे दूसरे हैं कर रह---
भरत यो-भाण्डा ने दूसरे हैं भर र ।। २४६ ।।
जा हाल ऐसा ही रहा तो देखना, हैं क्या अभी;
होगे यहाँ तक भो हुन्न थिमय बढ़ावे कभी ।
सिद्धान्त अनी उलट ३ डोरविन साहब यहाँ...
हो क्षुद्रकाय अत्री नर बन्दर बने ऊत्र यह ! ।।२४७ ।।
समाज
हिन्दू-समाज कुरीतियों का केन्द्र जा सकता कहा,
ध्रुव -पथ में कु-प्रथा वा जाल है बिछ रहा है।