दुर्दैव-पीड़ित जो पुराने चिन्ह कुछ कुछ रह गये,
देखेर, न जाने भाव कितने व्यक्त करते हैं नये ।
क्या कहें आरम्भ ही में सैथ रहा है जब गला,
भगवान ! क्या से क्या हुए हम, कुछ ठिकाना है भला ! ।।५।।
कुछ काल में ये जो पहले चिन्ह भी भिट जारी,
फर खोजने से भी न हम सच मार्ग अपना यि ।
जातीय जीवन-दीप अब भी स्नेह पात्रेय नहीं, ।
फिर अँधेरे में हमें कुछ हाथ आवेश नहीं ।। ६ ।।
अब भी सुधारेंगे ने हम दुर्दैव-वश अपनी दशा,
r नाम शेष हमें करेरा काल लें कर्कश कशा !
५स टिमटिमाता दीख पड़ता जि जीवन-दी है,
इ7 व क्या रक्षा न होंगी, सनाश समीप है ? ।। ७ ।।
निज पूरीजों का वह अलौकिक सत्य, शील निहारलो,
फिर ध्यान से अपनी दशा भी एक बार विचार ।।
जा आज अपने अपने यों भूल हम जाते नहीं,
तर थों कभी सन्ता-मूलक शूल हम पाते नहीं ।। ८ ।।
निज पूजे के सद्गुणों के यत्न से मन में घरो,
सब अत्म-परिमव-अव तज निज रूप का चिन्तन करो ।।
निज पूजे के सद्गुणों का गी जे रखती नहीं,
वह जाति जीवित जातियों में रह नहीं सकती कर्ह ।। ९ ।।