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भविष्यत् खण्ड


पृथ्वी, पवन, नम, जल, अनल सर्व ला रहे हैं काम में,
फिर क्या तुम्ही खोते समय हो व्यर्थ के विश्राम में ?
बीते हजारों वर्ष तुमको नींद में सोते हुए,
बैठे रहो और कब तक भाग्य को रोते हुए ? ।।४०।।

इस नींद में क्या क्या हुआ, वह भी तुम्हें कुछ ज्ञात है ?
कितनो यहाँ लुढे हुई, कितना हुआ अपघात है !
होकर न टस से मस रहे तुम एक ही करवट लिये,
निज दुर्दशा के दृश्य सारे स्वप्न-सम देखा किये ! ।।४१।।

इस नई में ही तो यवन अकर यहाँ आदत हुए,
जागे न हो ! स्वातन्त्र्य खोकर अन्त में तुम धृत हुए हैं।
इस नींद में ही सब तुम्हारे पूर्व-गौरव हृत हुए,
अब और कब तक इस तरह नोते रहोगे मृत हुए ? ।।४२।।

तप्त ऊष्मा के अनन्तर दीख पड़ती वृष्टि है,
बली न किन्तु इशा तुम्हारी नित्य शनि को दृष्टि है !
है घूमता फिरता समय तुम किन्तु ज्यों के त्यों पड़े,
फिर भी अभी तक जी रहे हों, वीर ही निश्चय बड़े ! ।।४३।।

पशु और पक्षा अधि भी अपना हिताहित जानते, पर होय !
क्या तुम अब उसे भी हो नहीं पहचानते ?
निश्चेष्टता मानों हमारी नष्टता की दृष्टि है,
होती प्रलय के पू जैसे स्तब्ध सारी सृष्टि हैं ।। ४४ ।।

सोचो विचारों, तुम कहाँ हो, समय की गति है कहाँ,
वे दिन तुम्हारे आप ही क्या लौट आवेंगे यह ?