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भविष्यत् खण्ड


जो मातृ-संदक हो वहीं सुत श्रेष्ठ जाता है गिना,
कोई वड़ा बनतः नहीं ल्यु और नम्र हुए विना ।।८२।।

रक्खो न व्यर्थ घृणा कभी निज वर्ण से यह नाम से,
मत नीच समझो आपक, ॐ चे उन कुछ काम से ।
उत्पन्न हो तुम प्रभु-मों में जो सभी को ध्येय हैं,
तुभ हो सहोदर सुरसरी के चरित जिसके रोय हैं ! ।।८३।।

साधु-सन्त


सन्तो ! महन्तो ! स्वभय 1 गौरव तुम्हारा ज्ञान है,
पर क्या कभी इस बात पर जाता तुम्हारा ध्यान है ?
यह वेश चाह सुगम हो, अवेश अति दुर्गम्य है;
सौरभ-रहित है जो सुमन वह रूप में क्या रम्य है ? ।।८४।।

हे साधुश्री ! सोये बहुत अब ईश्वराराधन करो,
उपदेश-द्वारा देश को कल्याण कुछ साधन को ।
डूबे रहोगे और कब तक हाय ! तुम अज्ञान में ?
चाहो तुम्हे तो देश की काया पलट दो आन में ।। ८५ ।।

थे साधु तुलसीदास, नानक, रामदास समर्थ मी,
व्यवहृत यही पद हो रहा है आज उनके अर्थ है ।
एर वे न होकर भी यहाँ उपकार सबका कर रहे,
सद्भाव उनके प्रन्थ सबके मानसों में भर रहे ।।८६।।

कुछ वेश की भी लाज रक्सो, अज्ञता का अन्त हो;
भर कर न केवळ उदर ही तुम लोग सच्चे सन्त हो ।
बाधा मिटा दो शीघ्र मद से इन्द्रियों के रोग की,
फैले चमत्कृवि फिर यहाँ पर सिद्धि-मूलक योग की ।।८७।।