पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/१८१

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भविष्यत् खण्ड आनन्ददात्री शिक्षिका है सिद्ध कविता कामिनी, है जन्म से ही वह वहाँ श्रीराम की अनु गासिनी । पर अब तुम्हारे हाथ से बइ कामिनी ही रह गई, ज्योत्स्ना राई देखो, अँधेरी यामिनी ही रह गई ! ।। ९३ ।। अब ते विषय की ओर से मन की सुरति के फेर दो, जिस और गति हो समय की उस ओर मति को फेर दो। गाया बहुत कुछ रग तुमने योग और वियोग का, सञ्चार कर दो अब यहाँ उत्साह का उहा का ॥ ९४ ।। केवल मनोरञ्जन न कवि क कर्म होना चाहिए, उसमें उचित उपदेश का भी मन होना चाहिए । क्यों आज रामचरित्रमानस' सब हीं सम्मान्य हैं ? सत्काव्य-धुत उसमें परम श्रदर्भ का प्राधान्य है ।। ९५ ।। अँग्रेच्युत केा धेई में कवि ही गिलाना जानते, वे ही नितान्त पराजिता के जय दिलाना जानते । होते न पृथ्वीराज ते रहते प्रताप प्रती कहाँ ? १-धन्कु गौरव प्रातःस्मरणीय महाराणा प्रतापसिंह ने वर शाह के विरुद्ध, स्वाधीनता की रक्षा के लिये बरस इन में रह छ, अनेक कष्ट सहन किये थे। किन्तु एक बार कौटुश्विक दुर्दशा पर जद 8की हृदय विचलित हो गया था, तब बीकानेर के महज पृथ्वीराज ने अपनी ओजस्विन्दी कविता में उनको एक पत्र लिखा धा । असो अन् महाना कर अपने पूर्व ब्रत पर इदु हो गये थे !