पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/४०

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अति-मात थे ये-बल से वश्व हमारे नित्य पाँच तत्व भो, मत्त्व में वह शक्ति थी खता न जा अमरत्व भी । संहार-पथ में यह हमारी गति कहीं रुकती न थी, विस्तृत हमारो आयु वह चिरकाल तक चुकतो न थी |८|| जे श्रम उठा कर युद्ध से की जाय खोज जहाँ तह, विश्वास है, तो आज भी योग; मिलें ऐसे यहाँजो शून्य में संस्थित रहें, मांजन विन। म कसी मरे; अविचल समाधिस्थित रहें, दूत देह परिवर्तित करें ।। ८१ ॥ हाँ, वह मनःसाक्षित्व-विद्या की विलक्षण साधना; वृह मेस्सरेजिभर की महत्ता, प्रेत-चक्राना३ ।। आश्चर्यकारक और भी वे अाधुनिक बहु वृद्धियाँ, कहना वृथा है, हैं हमारे येाग की लघु सिद्धियाँ ॥ ८२ ।। हमारा साहित्य हित्य का विस्तार अब भी है भार कम नहीं; प्राचीन किन्तु नवोनता में अन्य उसके सम नहीं । इस क्षेत्र से ही विश्व के साहित्य-उपवन हैं बने, इसको उजाड़ा काल ने आघात कर यद्यपि धने ।। ८३ ॥ ॐ काशी में एक से महमा थे । -कृष्णदाङ । १-Thougbt reading. २-Mesmerism, ३-Circle.