पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/४१

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5 . असोत खण्ड फैला यहीं से ज्ञान का अलोक सब संसार में, जागी यहीं श्रीं जग रहो जो ज्योति अब संसार में । इंजील और कुरान आदिक थे न तव संसार मेंहमको मिला था दिव्य वैदिक बोध जब संसार में ।। ८४ ।। जिनकी महत्ता का ३ कोई पा सका है भेद हो, संसार में प्राचीन सब से हैं हमारे वेद ही । प्रभु ने दिया यह ज्ञान हमको सृष्टि के आरम्भ में, है मूल चित्र पवित्रता का सभ्यता के स्तम्भ में }} ८५ ।। विख्यात चारी बेद् मान चार सुख के सार हैं, चारों दिशाओं के हमारे वे जय-वृजे चार हैं । वे ज्ञा-३-गरिमाऽयार हैं, विज्ञान के भाण्डार हैं; में पुण्य-पारावार हैं, अचार के अाधार हैं ।। ८६ ।। उपनिषद् जो मृत्यु के उपरान्त भी सबके लिए शान्ति-प्रदा-- है उपनिषद्विद्या हमारी एक अनुपम सम्पदा । इस लोक को परलोक से करतो वही एकत्र हैं, हम क्या कहें, उसकी प्रतिष्ठा हो रही सर्वत्र है ।। ८७ ।। १ - अपनिषदों के प्रत्येक पद से गम्भीर और नवीन विचार उत्पन्न होते हैं । और सुब में उत्कृष्ट, पवित्र र सञ्च भाव विद्यमान हैं । भरितीय वायुमण्डल हमें घेरे हुए है और नुरूप आत्माओं के नवीन विचार भी हमारे चारों ओर हैं। समस्त संसार में मूल पदार्थों को छोड़ कर किसी अन्य विद्या का ज्ञान ऐसी लाभदायक और हृदय को उच्च बनाने वाला नहीं है, जैसा कि उपनिषदों का है इसने मेरे जीवन को शान्ति दी है और यह मृत्यु के समय भी मुझे शान्ति देगी ! कमेन तत्ववेत-स्कोपजहार ।