पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/५१

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अतीव खण्ड है आज कल की डाक्टरो जिससे महामहिमा मयी, वह आसुरी” नामक चिकित्सा है यहीं से ली गई हैं। नाड़ी-नियम-युत रोग के निश्चित निदाद हुए यहाँ, सत्र औषधी के गुण समझकर रस-विधान हुए यहाँ ।।१०३११ १-- * } अयुर्वेद में चिकित्सर के तीन भे; हैं, यथा--- आसुरी मानुजी देबी चिकित्सा त्रिविधा मत । शख: पाहाचैः क्रनेणान्त्या सुपूजिता ।” किसी किसी के सुर चिकित्सा के राक्षसी भी लिखा है:---- ‘राभिः क्रियते वकिल्ला दैवीत वैद्य : एरिकीर्तिता सा ।। सा मानुपी योऽथ कृता फळाय: स राक्षसी अरूःता भवेद्या ॥” अर्थात् में 3 लोर राधिक से की हुई चिकित्सा को है बी, फल मूलादि से की हुई के भानुषी और शस्त्रश; से चीरने-कड़ने की चिकित्सा को राक्षसी चिकित्स? कहते हैं । ( ब ) प्राचीन काल में हिन्दुओं को शस्त्रचिकित्सा ( धीरफाड़) करने में सोच न था । उन्होंने शैवाक में यूनानियों से कुछ भी नहG सोखा, वरन् उन्हीं को बहुत कुछ सिखलाया ।। । आठवां शताब्दी में संस्कृत से जो पुस्तकें अनुवादित हुई उन्हीं पर अरब के वक की मॉब पड़ी और सत्रहवीं शताब्दी तक योरप के वैद्य अरब बाल के ( वास्तव में हिन्दुओं के) नियम पर सेलते थे । आठवीं शताब्दी से पंद्रहवीं शताब् तक वैद्यक की जो पुस्तके योर में बनती रह उल अश्क के वाक्यों के प्रमाण दिये गये हैं । ६६ र ६ । | (5) श-चिकित्सा में हिन्दुओं ने जो सफलता प्राप्त की थी वह उसी प्रकार आवजनक है जिस प्रकार रसायनशास्त्र की उन्नति में उनकी सफलता । नरेबिल अलफेन्स्टन साहब ।