पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/६

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भारत-भारती देती थी वही आज धद पद पर पथ मुंह ताक रही है ! ठीक है, जिक जेसर उत्थान उच्चका वसा है। इतने ?. परन्तु पेशा इम झोग सदा अवनति में ही प रहेंगे ? हमारे देखते देते जंगली जातियाँ तक उठ कर हमसे आगे बढ़ जाई और हम वसे ही ५ रहें, इससे अधिक हुभोग्य की बात और क्या हो सकती है ? क्या इन लोग अपने मार्ग से यहाँ तक हद गये हैं कि अब उसे पा ही नहीं सकते ? क्या हमारी सामाजिक अवस्था इतनी बिगड़ गई है कि ह, सुधा ही नहीं जा सकती ? दया सचमुच हमारी यह निद्रा चिर निड़ा है ? क्या हमारा रोग ऐसी अध्यं हो गया है कि उनकी कोई चिकित्सा है। नाहीं । संसार में ऐसे कोई भी कुछ नहीं । समधिल डोग से सिद्ध न हो सके । परन्तु उन के लिए उत्साह की आवश्यकता है, बिना उत्साह के उबर नहीं है लता । इई उत्साह थे, इसी मानसिक वेग को, उसे जित करने के लिए कविता एक उत्तम साइन है । परन्तु बड़े खेद की बात है कि हुए लोन के हिन्दी में अभी तक इस ढङ्क की कोई कविता-पुस्तक नहीं दिखी गई जिसमें इस प्राचीन उन्नति और बांची अवनत का मन भी हो और भविष्य के अत्साहन भए । इस अमर की पूर्ति के लिए, जहाँ तक मैं जानता हूँ कोई यथचित प्रयास नहीं किया गया । परन्तु देशवत्सल सदन को यह श्रुटि हुत खटक रही हैं। ऐसे ही महानुभाव में बुरीसुदौली . के अधिपति माननीय श्रीमान् रजा सपाली , सी० आई० ई० कोई दो वृर्ष हुए, मैंने पूर्वदर्शन' नामकी एक तुकबन्दी लिखी धी ! उस समय वित्त में आया था कि हो सका तो कभी इसे पल्लवित