पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/६०

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भारत-भारती हाँ, मत्स्य जैसे लक्ष्य-वेधक धीर-यन्त्री थे यहाँ, रिपु के गिर कर अस्त्र पीछे लौट आले थे कहाँ ?।।१२६।। श्री चञ्चला की-सी चमक , शीघ्रता सन्धान की, कृतहस्तता' ऐसी कि गति थी हाथ में ही बाण को ।। भुइ खोज कुत्ता भूकने में बन्द फिर जब तक करे--- पर जाय मुख तूर-सा, पर बात क्या जो वह मरे१!}}१२७|| जिसके समक्ष न एक भी विजयी सिकन्दर की चली– वृह चन्द्रगुप्त महींप था कैसा अपूर्व महाबली ? जिससे कि सिल्यूकस समर में हर तो था ल गया, कार आदिक देश देकर निज उता था दे गया ?।।१२८।। जो एक सौ सौ से लड़े ऐसे यहाँ पर वीर थे, सम्मुख समर में शैल-सम रहते सदा हम धीर थे। १–एकलव्य नामक निषाद-दाल, अपने गुरु द्रोणाचार्य की | मूर्ति के सम्मुख, वन में धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था । शिकार खेलने के लिनु अाये हुए पांडव का एक कुत्ता बूमता हुआ उधर जा निकला । एकलव्य को देखकर वह भोंकने लगी । इस पर एकलव्य | अपनी धनुविधा की परीक्षा करने के लिए, उसके मुंह में सात बम सार कर उस भाकुना मात्र न्द कर दिया । महाभारत के अपर्व में इसका विस्तारपूर्वक वर्णन है। ॐ सिकन्दर का सेवापति ।