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अतीत खण्ड


हैं प्रीति और पवित्रता की मूर्ति-सी वे नारियों,
हैं गेह में वे शक्तिरूपा, देह में सुकुमारियाँ, ।
गृहिणी तथा मन्त्री स्वपति की, शिक्षित हैं वे सती,
ऐसो नहीं हैं वे कि जैसी अाज कल की श्रीमती ।।१६२।।

वर का हिसाब-किताव सारा है उन्हीं के हाथ में,
इयवहार उनके हैं दयालय सब किसी के साथ में ।
में पाक-शास्त्र-विशारद हैं और वैद्यक-जानर्सर,
सबको सदुई सन्तुष्ट रखना धर्म अपना मान ।। १६३ ।।

आलस्य में अवकाश को ये व्यर्थ ही खोती नहई,
दिन क्या, निशा में भी कमी पति से प्रथम सोती नहीं ।
सीना, पिरोना, चित्रकारी ज्ञानती हैं वे अभी--
सङ्गीत भी, पर गीत गन्दे ॐ नहीं गार्ह कभी ।।१६४।।

संदर-यात्रा में स्वपति को वे अटल अश्रान्ति हैं,
हैं दु:ख में वे रता, सुख में सदा वे शान्ति हैं।
शुभ सान्त्वना हैं शोक में वे और ओपषि रोग में,
संयोग में सम्पत्ति हैं, इस हैं विपत्ति वियोग में ।।१६५।।

अब हैं स्त्रियाँ २ देवियाँ, सन्तान क्यों उत्तम न हो ?
उन बाके के सरल, सुन्दर भाव तो देखो, अहो !
ऊषाऽगमन से जाग ये भी ईश- उप गाने लगे--
या कक्ष फूले देख बन्दी भृङ्ग उड़ जाने लगे ! ।।१६६।।