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भारत-भारती




हैं हृष्ट-पुष्ट शरीर से, माँ-बाप के वे प्राण हैं-
जो सर्वदा करते दृगों को भाँति उनको त्राण हैं ।।
वे जायँ जब तक गुरुकुलों में, ज्ञान का घर है जहाँ--
तब तक उन्हें कुछ कुछ पढ़ाती श्राप माताएँ यहाँ ।।१६७।।

है कि पुत्रों के साथ ही पुत्रियों का मान भी,
क्या आज की-सी है दुशा, जो हो । उनका ध्यान भी ! .
हैं उस समय के अन न अब-से जो उन्हें समझ बली है।
हांग न दोनों नेत्र किसको एक-से प्यारे भला ? ।। १६८ ।।

देखो, अहा ने पुत्रियाँ हैं या विभव की वृद्धियाँ,
अवतीर्ण मानों हैं हुई प्रत्यक्ष उनके ऋद्धियाँ । है !
अब उन्हींके जन्म से हम डूवते हैं शोक में,
पर हो न उनका जन्म तो ह पुत्र कैसे लोक में ?।।१६९।।

तौवन

मृग और सिंह तपोवनों में साथ ही फिरने लगे,
शुचि होम-धूम उठे कि सुन्दर सुरभि-घन घिरने लगे ।
ऋषि-मुनि मुदित मन से यथा-विधि हवन क्या करने लगे-- उपकार मूलक पुण्य के भण्डार-से भरने लगे ।।१७०।।

वे सौम्य ऋषि, मुनि आज कल के साधुओं जैसे नहीं;
केाई विषय जिनसे छिपा हो विज्ञ वे ऐसे नहीं ।
हस्तामलक-जैसे उन्हें प्रत्यक्ष तीनों काल हैं,
शिवरूप हैं, तो उन्होंने वन्धनों के जाल हैं ।।१७१।।