पृष्ठ:भारत भारती - श्रि मैथिलिशरण गुप्त.pdf/७१

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अतीत खण्ड वे ग्रन्थ जो सर्वत्र ही गुरु-मान से मण्डित हुएपढ़ कर जिन्हें संसार के तत्त्वज्ञजन पण्डित हुए । जो आज मी थोड़े बहुत हैं नष्ट होने से बचे, हैं वे उन्हीं तप के धनी ऋषि और मुनियों के रचे ।। १७३}} कुशपाणि पाकर भी उन्हें डरतो स्वयं वी सदा, है तुच्छ उनके निकट यद्यपि उस सुरप की सम्पदा । यद्यपि उटजवासी तदपि वह तत्त्व उनके पास है, आकर अलेक्जेंडर-सदृश सन्नाट बनता दास है। ! ।। १७३ ।। विद्यार्थियों ने जागकर गुरुदेव का वन्दन किया, निज दित्यकृत्य समाप्त करके अध्ययन में मन दिया । जिस ब्रह्मचर्य-ब्रत बिना हैं आज हम सब रो रहेउसके सहित वे वीर होकर वीर भी हैं हो रहे ।। १७४ ।। १--जिस समय सिकन्दर भारतवर्ष में आया था उस समय यहाँ दण्डी नाम के एक तपस्वी ब्राह्मण थे। वे सुनिशि धारण करके वन में रहते थे। उनकी प्रशंसा सुन कर सिकन्दर ने उनसे मिलने की इच्छा प्रकट की । इण्डी को लेने के लि दूत भेजे गये । किन्तु उन्होंने आने से इन्कार कियई । अन्त में स्वयं सिकन्दर ही इनकी सेवा में उपस्थित हुई और शिष्यभाई ने उनके डारा अनेक उपदेश सुन कर उसने अपने को कृतकृत्य समझा। इस घटना का उल्लेख कर के भेगास्थनीज़ कहता है**जिसने (सिकन्दर ने ) अनेक बदतियों को परास्त किया था वह भारतवर्ष के, एक नग्न मनुष्य से परास्त हो गया !”