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मारत-भारती है नित्य चित्रों के यहाँ बस, ज्ञान-चच दुखतो, शुक-सारिकाएँ मी जहाँ शास्त्रार्थ करना सीखती १ } कोई जगत को सत्य, कोई स्वप्न मात्र बता रहा, कोई शकुनि उनमें वहाँ मध्यस्थ भाव जता रहा ।।१८१।। चारित्र्य देखो कि सबके साथ सबका निष्कपट बर्ताव है, सबमें परस्पर दीख पड़ता प्रेम का सद्भाव है ।। कैसे फले-फून' मला वे जो न हिल मिल कर रहे? वे अर्थ ही क्या, यदि कमी परिवाद निज मुख से कहें ॥१८२ ठग और चोर कहीं नहीं हैं धर्म का अति ध्यान है, देखे न देखे और कोई, देखता भगवान है। सूना पड़ा हो मल काई किन्तु जा सकता नहीं, केाई प्रलोभन शान्त मन को है मुझ सकता नहीं ।।१८३।। १---यह पद्य शङ्करदिग्विजय” के निम्नलिखित श्लोक को लक्ष्य करके लिखा गया है-- जगधुवं यजमावस्यात् कीराङ्गना यन्न गिरो गिन्ति झारथोड़न्तरससिद्धी जानोहि तन्मण्डनपण्डितौकः ।। ३----सुङतान शारुख का एलची अब्दुलरज़ाऊ, जो १४४३ ई० में ‘कालोक में अाया था, अपनी किताब 'मुतालुलसाइन' में लिखता है| माल हेर किस्म का, बौर मालिक के, बाज़ार में खुला पड़ा रहता है, पर कोई उसे हाथ नहीं लगता ।।