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अतीत खण्ड


अशोक और गुवंश

था सार्वभौम अशोक का कैसा ताप बढ़ा चढ़ा,
विस्तार जिसके राज्य का था अन्य देशों तक बढ़ा ।
थे गुप्तवंशी नृप, न धर्म-द्ध जिनको इष्ट था;
तात्प, तब भी भूमि पर भारत बहुत उत्कृष्ट था ।।२०७।।

जैनमत
प्रकटित हुई थी बुद्ध विभु के चित्त में जो भावना---
पर-रूप में अन्यत्र भी प्रकटी वही प्रस्तावना ।।
फेला अहिंस-बुद्धि-वद्ध के जैन-पन्थ-समाज भी,
जिसके विपुल साहित्य की विस्तीर्णता हे अज भी ।।२०८।।

श्रुति-संहिताओं से निकल ध्रुव धर्म-चिन्ता-हादिनी,
हो वौद्ध-ौतमयी त्रिपथगा बह चली कलनादिन ।
शतश: प्रवाहों में उसे अब देखते हैं हम सभी,
फिर एक होकर ब्रह्म-सागर में मिलेगी वह कभी ? ।।३०९।।

मतभेद
इस भाँति भारतवर्ष ने गौरव दिखाया फिर दया,
पर हाय ! गैदिक-धर्म-रवि था बौद्ध-घन से घिर गया।
औनादिकों से भी परस्पर भेद बढ़ता ही गया,
उस फूट के फल की प्रबल विष और चढ़ता ही गया ! ।।२१०।।