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वर्तमान खण्ड

है काँखता कोई कहीं, कोई कहीं रोता पड़ा;
केाई विलाप-प्रलाप करता, ताप है कैसा कड़ा।
हैं मृल्यु-रमणी पर प्रणयि-सम वे अमागे मर रहे,
जब से बुभुक्षा कुट्टनी ने उस प्रिया के गुण कहे!।।१८।।

नारी-जनों की दुर्दशा हमसे कही जाती नहीं,
लज बचाने की अहो! जो वस्त्र भी पानी नहीं।
जननी पड़ी है और शिशु उसके हृदय पर मुख घरे,
देखा गया है, किन्तु वे माँ-पुत्र दोनों हैं मरे!।।१९।।

जो कुलवती हैं भीख भी वे माँग सकती हैं नहीं,
मर जायँ चाहे किन्तु झोली टाँग सकती हैं नहीं।
सन्तान ने आकर कहा—माँ! रात तो होने लगी,
भूखे रहा जाता नहीं माँ!' हाय! माँ रोने लगी।।२०।।

है खोलतो सरकार यद्यपि काम शीघ्र अकाल के,
होती समाएँ, और खुलते सुन्न अटे-दुलि के।
पूरा नहीं पड़ता तदपि, वह त्राहि कम होती नहीं;
कैसी विषमता है कि कुछ भी हाय! सम होती नहीं।।२१।।

प्रायः सदा दुर्भिक्ष ऐसा है बना रहता जहाँ,
आश्चर्य क्या यदि फिर निरन्तर नीचता फैले वहाँ।