पृष्ठ:भारत में अंगरेज़ी राज (दूसरी जिल्द).djvu/२२

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४५०
भारत में अंग्रेजी न राज

४५० भारत में अंगरेजी राज दो साल की मियाद नियत थी। कॉर्नवालिस के पत्रों से जाहिर है उसे यह प्राशा थी कि टीपू, जिसका प्राधा राज छिन चुका था और बाकी रौंदा और बरबाद किया जा चुका था, दो साल के अन्दर इतनी भारी रकम को अदा न कर सकेगा और कम्पनी को इस बहाने उसका रहा सहा राज हड़पने का भी मौका मिल जावेगा। किन्तु कॉर्नवालिस को इस विषय में निराशा हुई । टोपू एक अत्यन्त योग्य शासक था, वह अपनी जबान का भी सच्चा था। उसने अपनी ओर से सन्धि की शर्तों का सबाई के साथ पालन किया। इतिहास लेखक मैलकम लिखता है कि-"अथक परिश्रम और जबरदस्त उत्साह के साथ वह हर उचित उपाय से अपनी खोई हुई शक्ति को फिर से प्राप्त करने की कोशिश में अपनी पूरी ताकत लगा देने का गम्भीर संकल्प कर चुका था।" इसीलिए सन् १७६२ से :- ___ "पू ने सबसे पहले अपनी मान कायम रखते हुए अक समय पर उस भारी रकम को अदा कर दिया, जो सन्धि के समय उसके शत्रुओं की भोर से नियत कर दी गई थी। इस तरह डोक मिवाद के अन्दर इतनी बड़ी रकम का अदा हो जाना एक असाधारण बात है। फिर अपनी मुसीबतों से बबरा कर बैठ जाने के बजाय युर द्वारा मुखक की जो बरबादी हुई थी, टीपू सुलतान ने उसे फिर से दुरुस्त करने में अपनी सारी शक्ति लगा दी । उसने अपनी राजधानी की रथा के लिए सिलेबन्दी को बढ़ाना, सबारों की सेना को फिर से पूरा करना, पैदक सेना में नए रंगरूट भर र उने शिक्षा देना, अपने उन सामन्त सरकारों को, जो शत्रु से मिल गए थे दण्ड देना, और