६३. भारत में अंगरेजी राज जिलेस्पी की मृत्यु वास्तव में अत्यन्त करुणाजनक थी। उसका मुख्य कारण गोरे सिपाहियों की कायरता थी। जिलैस्सी की इतिहास लेखक विलसन लिखता है कि बार बार करुणाजनक की हार से चिढ़कर जनरल जिलेस्पी स्वयं तीन मृत्यु कम्पनियाँ गोरे सिपाहियों की साथ लेकर दुर्ग के फाटक की ओर बढ़ा । दुर्ग के अन्दर से गोलियों और पत्थरों की बौछार शुरू होते ही ये तीन सौ गोरे सिपाही पीछे हट गए । वीर जिलेस्पी अकेला श्रागे बढ़ा। उसने अपनी नङ्गी तलवार घुमा कर और ललकार कर अपने सिपाहियों को आगे बुलाना चाहा। किन्तु व्यर्थ ! इतने ही में एक गोली दुर्ग के फाटक से ३० गज़ पर जिलेस्पी की छाती मे आकर लगी, जिलेस्पी वहीं पर ढेर होगया। लिखा है कि कलङ्गा के ठीक फाटक के ऊपर गोरखों की एक तोप थी जिसकी आग से होकर शत्रु को आगे कलङ्गा का बढ़ने की हिम्मत न होती थी। गोरखों के पैने तीरों ने भी अंगरेज़ी सेना के संहार में सहायता दी। इसके अतिरिक्त विलियम्स साफ़ लिखता है कि गोरखे इस वीरता के साथ दुर्ग की रक्षा कर रहे थे कि अंगरेज़ी सेना को दुर्ग की दीवार तक बढ़ने का साहस न होता था। भारत के अन्दर प्रायः प्रत्येक ऐसे खतरे के अवसर पर अंगरेज सिपाहियों ने हद दरजे की कायरता का परिचय दिया है। भरतपुर के मुहासरे के समय के उनके लज्जास्पद व्यवहार को इस पुस्तक में एक दूसरे स्थान पर बयान किया जा चुका है।
पृष्ठ:भारत में अंगरेज़ी राज (दूसरी जिल्द).djvu/५३४
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