मानव धर्म कबीर हिन्दुओं के वर्णाश्रम धर्म या जातिभेद का कट्टर विरोधी था। वेदों, शास्त्रों या कुरान में से किसी को भी वह निर्धान्त या हर बात में प्रमाण न मानता था। सूमियों के समान प्रेम, इश्क या भक्ति उसका मुख्य धर्म था । अपनी रमैनी, शब्दों और साखियों के जरिए उसने हिन्दू और मुसलमान दोनों को एक समान धर्म का उपदेश दिया, निर्भीकता के साथ दोनों मतों की रूढ़ियों का एक समान खण्डन किया, और प्राणि- मात्र के साथ प्रेम और एक ईश्वर की भक्ति का सबको एक समान उपदेश दिया। कबीर ने हिन्दू मत और इसलाम दोनों में से सामान्य सच्चाइयों को एक समान ग्रहण किया। संस्कृत और फारसी, उर्दू और हिन्दी, चारों भाषाओं के शब्दों का अपने पद्यों में उसने एक समान उपयोग किया। हिन्दू और मुसलमान धर्मो की झूठी पृथकता पर दुख प्रकट करते हुए, दोनों को एक सार्वजनिक धर्म दर्शाते हुए और दोनों को प्राणिमात्र पर दया का उपदेश देते हुए, कबीर कहता है- भाई रे दुइ जगदीश कहाँ ते आया, कहु कौने बौराया। अल्लाह राम करीमा केशव, हरि हजरत नाम धराया ॥ गहना एक कनक ते गहना, यामें भाव न दूजा। कहन सुनन को दुइ कर थापे, एक निमाज एक पूजा॥ वही महादेव बही महम्मद, ब्रह्मा श्रादम कहिए। को हिन्दू को तुरक कहाचे, एक जिमी पर रहिए । वेद कितेब पढ़े वै कुतुवा, वै मुलना वै पांड़े। बेगर बेगर नाम धराए, एक मिट्टी के भाँड़े।
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