भारत में अगरेजी राज मारन बुला बुला कर जबरदस्तो उनसे रकम वसूल करना शुरू किया। जव इससे भी काम न चल सका तो उसे जगतसंठ से कर्ज लेना पड़ा और अन्त में अंगरेजों को रकमे देने के लिए रियासत के जवाहरात बेचकर और महल के सोने चॉदी के बरतन गलवा कर सिक्के ढलवाने पड़े। कम्पनी की टकसाल कलकत्ते में कायम हो चुकी थी। किन्तु . अंगरेजों ने मीर कासिम की इस शर्त की बिल्कुल कम्पनी के खोटे परवाह न की कि जो सिक्के कलकत्ते में ढाले सिक्के जावे वह मुर्शिदाबाद की सरकारी टकसाल के सिक्कों के समान वज़न और समान धातु के हो । अंगरेज बराबर अपनी टकसाल में घटिया सिक्के ढालते रहे। नतीजा यह हुआ कि बावजूद मीर कासिम की कड़ी आज्ञाओं के प्रजा ने कलकत्ते के सिक्को को बिना बट्टे के लेने से इनकार किया। इस पर अंगरेजों ने मीर कासिम से प्रार्थना की कि जो सिक्के हम कलकत्ते में ढाले उन पर भी हमें मुर्शिदाबाद का नाम और मुर्शिदा- बाद ही की छाप रखने की इजाजत दी जावे। मीर कासिम ने इस जाली काररवाई को तो मंज़र न किया, किन्तु उसने अंगरेजों को सन्तुष्ट करने के लिए कलकत्ते के सिक्कों को लेने से इनकार करने वाले या उन पर बट्टा माँगने वाले जमींदारों और अन्य लोगों को सजाएं देना शुरू कर दिया। इन सख्तियों की वजह से अनेक जमींदार मीर कासिम से असन्तुष्ट हो गए, यहाँ तक कि कई जगह नए नवाब के खिलाफ बगावत की तैयारियाँ होने लगी। .
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