मीर जाफ़र की मृत्यु के बाद २२५ के सामने ये लोग कम्पनी के हित अहित की भी परवा न करते थे। ३० सितम्बर सन् १७६५ को क्लाइव ने कम्पनी के डाइरेक्टरों के नाम एक लम्बा पत्र लिखा, जिससे उस समय के अंगरेजों की हालत का खासा पता चलता है। इस पत्र में क्लाइव लिखता है:- fxxx ये लोग ( कम्पनी के अंगरेज़ मुलाज़िम ) अपने अपने व्यक्तिगत और थोड़ी देर के लाभ के पीछे इस जोश के साथ बढ़े चले जा रहे हैं कि इनमें से अपनी इज़्ज़त का ख़याल या अपने मालिकों की ओर अपना कर्तव्य पूरा करने का ख़याल दोनों जाते रहे। इन लोगों के पास दौलत एका एक बढ़ गई है और बहुतों ने उसे नाजायज़ तरीकों से हासिल किया है; जिसकी वजह से तरह तरह की ऐश परस्ती इन लोगों में घर कर गई है और यह ऐश परस्ती बडी खतरनाक हद को पहुंच गई है।xxx यह बुराई रोग की तरह एक से दूसरे की लगती गई और दीवानी तथा फौजी दोनों महकमों के अंगरेज़ मुहरिरों, झंडा बरदारों और स्वतन्त्र व्यापारियों तक में फैल गई है। xxx "मैं अभी समझ भी न पाया था कि यह धन किन किन विविध उपायों से प्राप्त किया गया है कि इतने में मैं यह देख कर अत्यन्त चकित रह गया कि ये लोग इतनी जल्दी धनवान हो गए हैं कि अंगरेजी बस्ती भर में शायद ही कोई एक अंगरेज़ ऐसा होगा, जिसने बहुत ही थोड़े समय के अन्दर अपनी विशाल पूंजी सहित इंगलिस्तान लौट जाने का निश्चय न कर रक्खा हो।" कम्पनी के अंगरेजों के धन कमाने का एक खास उपाय उन दिनों खुले डाके डालना था। इतिहास लेखक खुले डाके टॉरेन्स ने साफ लिखा है कि ये लोग "बंगाल
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