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भारत में अंगरेज़ी राज

३७० मारत में अगरेजी राज राय से तय हो जाती थी, गवरनर जनरल के लिए उसका मानना जरूरी था। यही हालत मद्रास और बम्बई के गवरनरों की भी थी। इस नियम की वजह से वारन हेस्टिरस की चालों में कई बार आधाएँ पड़ी। जिस तरह की अंगरेजी नीति उस समय भारत में जारी थी, उसके लिए गवरनर जनरल के हाथों में पूरे अधिकार का होना जरूरी था। इसलिए कॉर्नवालिस के इंगलिस्तान से चलने से पहले पालिमेण्ट ने एक नया कानून पास किया, जिसमें कलकत्ते के गवरनर जनरल और मद्रास और बम्बई के गवरनरी को यह अधिकार दे दिया कि वे जिस मामले में चाहें अपनी कौन्सिलो की राय के खिलाफ़ या कौन्सिलों से बिना पूछे काम कर सकते हैं। इसके अलावा भारत में अंगरेजों का इलाका बढ़ता जा रहा था। इसलिए इस इलाके के शासन को चलाने के लिए अब इंगलिस्तान में एक नया सरकारी बोर्ड, जिसे 'बोर्ड ऑफ़ कण्ट्रोल' कहते हैं, बना दिया गया । इससे धीरे धीरे कम्पनी के थानो डाइरेक्टरों के अधिकार कम होते गए और ब्रिटिश भारत को हुकूमत इंगलिस्तान की पालिमेण्ट और वहाँ के मन्त्रि मराडल के हाथों में बातो गई। इस तरह नए अधिकार लेकर भारत का तीसरा अंगरेज़ गवरनर जनरल सितम्बर सन् १७८६ में भारत पहुँचा। कॉर्नवालिस के समय की सबसे बड़ी घटना हैदरअली के बड़े बेटे और वारिस टोपू सुलतान के साथ अंगरेजों टोपू और अंगरेज की का युद्ध था. जिसे दूसरा मैसूर युद्ध कहा जाता है।