भारत में अंगरेज़ी राज और निज़ाम ही के बल पर की थी। कहा जाता है कि इस अवसर पर मराठों और ख़ास कर नाना फड़नवीस ने कॉर्नवालिस को सुलह के लिए मजबूर किया। अंगरेज मराठों की इच्छा के विरोध का साहस न कर सकते थे। अन्त में २३ फ़रवरी सन् १७६२ को श्रीरंगपट्टन में दोनो दलों के बीच संधि होगई, जिसके अनुसार टीपू का ठीक श्राधा राज उससे लेकर कम्पनी, निज़ाम और मराठों ने आपस में बराबर बराबर बाँट लिया। इसके अलावा असहाय टीपू ने, तीन सालाना किस्तों में, तीन करोड़, तीस हजार रुपए दण्ड स्वरूप देने का वादा किया। और इस दण्ड की अदायगी के समय तक के लिए अपने दो बेटे जिनमें शहज़ादे अब्दुल खालिक की आयु दस साल की और शहज़ादे मुईजुद्दीन की आयु आठ साल की थी, बतौर बन्धकों के अंगरेजों के हवाले कर दिए। ___इस तरह दूसरे मैसूर युद्ध का अन्त हुआ। टीपू के दिल पर टीपू की प्रतिज्ञा .. इस युद्ध का इतना ज़बरदस्त असर हुश्रा कि " मीर हुसेनअली खाँ किरमानी लिखता है कि सन्धि के दिन से टीपू ने पलँग और बिस्तर पर सोना छोड़ दिया। उस दिन से मृत्यु के समय तक वह केवल चन्द टुकड़े 'खादी के ज़मीन पर डाल कर उनके ऊपर सोया करता था। यों तो उस समय तक भारत का बना तमाम कपड़ा ही हाथ का कता और हाथ का बुना होता था, किन्तु किरमानी लिखता है कि 'खादी'
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