पुस्तक प्रवेश O था उसे बेत या कैदखाने की सज़ा देते थे। विचार कीजिए कि उस समय देश्न की क्या हालत रही होगी जब कि अपनी किसी यात्रा को बयान करते हुए वारन हेस्टिंग्स लिखता है कि, 'हमारे पहुँचते ही लोग अधिकाँश छोटे कस्बों और सरायों को छोड़ छोड कर भाग जाते थे।' इन अंगरेज़ अधिकारियों की निश्चित नीति ही उस समय यह थी कि बिना किसी कारण के देशवासियों के साथ दग़ा की जावे । देशी नरेशों को धोखा दे देकर उन्हें एक दूसरे से लड़ा दिया गया ; पहले उनमे से किसी एक को उसके विपक्षी के विरुद्ध मदद दी गई, और फिर किसी न किसी दुर्व्यवहार का बहाना लेकर उसी को तख़्त मे उतार दिया गया। इन सरकारी भेडियों को किसी न किसी गँदले नाले का बहाना सदा मिल जाता था । जिन मातहत सरदारों के पास इस तरह के इलाके होते थे, जिन पर इन लोगों के दाँत होते थे, उनसे बडी बडी अनुचित रक़मे बतौर खिराज के लेकर उन्हें निर्धन कर दिया जाता था, और अन्त में जब वे इन मांगों को पूरा करने के नाकाबिल हो जाते थे तो इसी सङ्गीन जुर्म के दण्ड रूप उन्हें गही से उतार दिया जाताथा । यहाँ तक कि हमारे समय (१८५१) मे भी उसी तरह के जुल्म जारी हैं। आज दिन तक नमक का कष्टकर ठेका और लगान की वही निर्दय प्रथा जारी है, जो कि गरोब रथ्यत से जमीन की करीब करीब आधी पैदावार चूम लेती है। अाज दिन तक भी वह धूर्ततापूर्ण स्वेच्छाशासन जारी है, जो देश को पराधीन बनाए रखने और उस पराधीनता को बढ़ाने के
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