११७ उन्हें आज्ञा थी जहाँ तक बने औरंगजेब को वापस लौटा दें और उज्जैन में क्षिप्रा नदी पार न करने दें। गर्मी की ऋतु थी और नदी का जल बहुत कुछ सूख गया था। राजा और क़ासिम नदी के इस पार थे कि टीले पर औरङ्गजेब की फ़ौज दिखाई दी। यदि राजा साहेब उसी वक्त हमला बोल देते तो औरंगजेब की थकी हुई सेना के पाँव उखड़ जाते, परन्तु उन्हें तो आज्ञा ही यह थी कि नदी के इस पार रहें और औरङ्गजेब को इस पार आने से रोकें। औरङ्गजेब तीन दिन तक नदी के उस पार पड़ा रहा। तीसरे दिन उसने एक ऊँचे टीले पर तोपखाना जमाया और राजा साहेब की सेना पर गोले बरसाने की आज्ञा दी। साथ ही अपनी सेना को पार उतरने की भी। राजा साहेब ने वीरता से युद्ध किया पर कासिम खाँ पहले ही औरङ्गजेब से मिल गया था। उसने रातों-रात गोला बारूद नदी में फिंकवा दिया था। शीघ्र ही उनका गोला बारूद चुक गया। औरङ्गजेब इस पार उतर आया और क़ासिमखाँ घोर संकट में जसवन्तसिंह को छोड़कर भाग खड़ा हुआ। राजा जसवन्त- सिंह खूब लड़े । उनके अठारह हजार राजपूतों में सिर्फ छः सौ बचे। तब जसवन्तसिंह आगरे न जाकर सीधे जोधपुर चले आये। वहाँ पहुँचते-पहुँ- चते सिर्फ पन्द्रह योद्धा उनके साथ बचे थे। इस विषय से औरंगजेब का साहस बढ़ गया और इसने प्रसिद्ध किया कि शाही फ़ौज में ऐसे तीन हजार सिपाही हैं जो हमारी सेना में आने को तैयार हैं। औरंगजेब ने उस स्थान पर एक सराय बनवाई और बाग़ लगाया और उसका नाम फ़तहपुर रखा। उसके हाथ बहुत सा सामान गोला बारूद लगा, जो क़ासिमखां ने जमीन में गड़वा दिया था। शाहजहाँ ने यह सुना तो दुःख और बेचैनी से बेहोश होगया। दारा का भी बुरा हाल था। उधर सुलेमान शिकोह शुजा के पीछे लगा था, उसे बादशाह बार-बार लौट आने का सन्देश भेज रहा था। दारा ने एक लाख सवार, बीस हजार पैदल, अस्सी तोपें एकत्र की और युद्ध की तैयारी की। औरङ्गजेब के पास चालीस हज़ार सवार थे। वे थके हुए भी थे, पर दारा को चैन न था, अब वह बादशाह का हुक्म नहीं -
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