२३४ लाख रुपये सालाना थी, और जिससे वर्तमान युक्त-प्रान्त की बुनियाद पड़ी, सदा के लिये कम्पनी को सौंप देने पड़े। इसके कुछ दिन बाद ही फ़र्रुखाबाद के नवाब को, जो अवध का सूबा था, एक लाख आठ हजार रुपया सालाना पेन्शन देकर गद्दी से उतार दिया। - इनमें एक दुर्गुण भी था। ये शराबी और विलासी थे। पर पीछे से तौबा करली थी। इन्होंने लखनऊ में बहुत-सी सुन्दर इमारतें बनवाई । ये लखनऊ को एक खूबसूरत शहर की शक्ल में देखना चाहते थे। इन्होंने बहुत-से मुहल्ले और बाजार भी बनवाये । इनकी मृत्यु पर इनके बड़े बेटे नवाब ग़ाज़ीउद्दीन हैदर गद्दी पर बैठे। उन्होंने अपना खिताब नवाब वजीर की बजाय बादशाह रखा। बादशाही पदवी प्राप्त करके इन्होंने अपना नाम 'अबुल मुजफ्फर मुहउद्दीन शाह जिमनग़ाजीउद्दीन हैदर बादशाह' रखा । इन्होंने अपने नाम का सिक्का भी चलाया। ये भी उदार, साहित्यिक और गुणग्राही बादशाह थे। मिरज़ा मुहम्मदजाँनवी किरमाली इनके दरबारी थे। उर्दू के प्रसिद्ध कवि आतिश और वासिख इन्हीं के जमाने में थे। ईद के अवसर पर कवियों को बहुत इनाम मिलता था। उस समय के प्रसिद्ध गवैये रज़कअली और फ़जलअली का भी दरबार में पूरा मान था। यह दोनों 'ख्याल' गाने में अपना सानी नहीं रखते थे। एक दक्षिणी वेश्या का भी इनके यहाँ बहुत मान था । इनके प्रधान मन्त्री नवाब मोतमिउद्दौला आग़ा मीर थे जो बड़े बुद्धिमान् थे । इन्होंने राज्य की बड़ी उन्नति की । खजाना रुपयों से भरपूर रहा । करोड़ों रुपये ईस्ट इण्डिया कम्पनी को कर्जा देते रहे। बादशाह की प्रधान बेगम बादशाह-बेगम कहाती थीं, और बड़े ठाठ से अलग महल में रहती थीं। इनसे किसी बात पर बादशाह की खटक गई थी। इन्होंने भी कई अच्छी इमारतें बनवाई। प्रसिद्ध शाह नजफ़ा इन्होंने बनवाया था। लोहे का पुल, जो गौमती नदी पर है, इन्होंने विलायत से बनवाकर मँगवाया था, पर उसे तैयार न करा सकी, और आप की मृत्यु हो गई।
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