२५८ जहाज का भण्डार खाली, पास में रुपया नहीं। न कोई बाजार ! केवल कुछ डच, फ्रान्सीसी और काले बंगालियों की कृपा से कुछ खाद्य-पदार्थ मिल जाया करते थे। दुर्दशा के साथ दुर्गति भी उनमें बढ़ गई । किसके दोष से हमारी यह दुर्दशा हुई ?-इसी बात को लेकर परस्पर विवाद चला। सब लोग कल- कत्त की कौंसिल को सारा दोष देने लगे। कौंसिल के सब लोग परस्पर एक-दूसरे को दोष देने लगे। घोर वैमनस्य बढ़ा। अन्त में सब यही कहने लगे कि लोभ में आकर कृष्णवल्लभ को जिन्होंने आश्रय दिया, और कम्पनी के नाम से परवाने औरों को बेचकर जिन्होंने बदमाशी की, वे ही इस विपित्त के मूल कारण हैं । पाँचवीं अगस्त को मद्रास में भागे हुए अंगरेज़ों ने पहुँचकर कलकत्त की दुर्दशा का हाल सुनाया। सुनकर सबके सिर पर वज्र गिरा । सब हत्- बुद्धि होगये। सबने अन्त में एक कमेटी की; खूब गर्जन-तर्जन हुआ । उन दिनों फ्रान्स से युद्ध छिड़ने के कारण अंगरेज़ों का बल क्षीण हो रहा था। वे इसलिये कुछ निश्चय न कर सके । उधर पालता बन्दर में अंगरेज़ चुपचाप नहीं बैठे थे। यदि नवाब पालता-बन्दर तक बढ़ा चला आता, तो अंगरेज़ों को चोरों की तरह भी भागने का अवसर न मिलता। पर उनका उद्देश्य केवल उनके दुष्ट व्यव- हार का दण्ड देना ही था। अनेक बंगाली इन दुदिनों में भी लुक-छिप कर इनकी सहायता कर रहे थे। औरों की तो बात अलग रही-स्वयं अमी- चन्द, जिसका अँगरेज़ों ने सर्वनाश किया था, और जो इन्हीं की कृपा से शोक-ग्रस्त और मर्म-पीड़ित हो, पथ का भिखारी बन चुका था, वह भी नवाब के दरबार में उनके उत्थान के लिये बहुत-कुछ अनुनय-विनय कर रहा था। उसने एक गुप्त चिट्ठी अंगरेजों को लिखी थी जिसका आशय था- "सदा की भाँति आज भी मैं उस भाव से आप लोगों का भला चाहता हूँ । यदि आप ख्वाजा वाजिद, जगतसेठ या राजा मानिकचन्द से गुप्त पत्र-व्यवहार करना चाहें, तो मैं आपके पत्र उनके पास पहुँचाकर जवाब मँगा दूंगा।" इस पत्र से अंगरेज़ों को साहस हुआ। शीघ्र ही मानिकचन्द की -
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