३१६ - की और विशेषकर अमिताय की पूजा होने लगी थी। बौद्ध-मन्दिरों का कर्म-काण्ड हिन्दू-मन्दिरों की पद्धति पर होने लगा था । बौद्ध-धर्म ने संस्कृत का माध्यम नष्ट कर पाली भाषा को अपने धर्म का माध्यम बनाया था, वह महायान सम्प्रदाय में फिर से संस्कृत को प्राप्त हो गया था। ज्ञान का मार्ग कर्म-काण्ड और भक्ति ने ग्रहण कर लिया था। धीरे-धीरे वैष्णव, शैव और तन्त्र-सम्प्रदायों ने संगठन किया, और बौद्ध-मत को प्रबल धक्के से भारत से निकाल कर बाहर कर दिया। इस घटना के बाद हिन्दू-धर्म फिर से भारत में स्थापित हुआ-पर वह बहुत ही अपूर्ण और भ्रामक था । कुछ थोड़े से उच्च-श्रेणी के लोग उपनिषद् और दर्शन-शास्त्र के ज्ञाता बच रहे थे। पर अधिकांश पौराणिक गपोड़े और ढकोसलों की भरमार थी। जाति-भेद खूब ज़ोर से बढ़ रहा था। ब्राह्मण अत्यन्त प्रबल हो गये थे। शूद्र दुखित हो रहे थे, और इस प्रकार भारत के सामूहिक जीवन का विकास असम्भव हो गया था। पण्डों और पुरोहितों के असाधारण अधिकार थे । असंख्य देवी, देवता, मूर्ति, शक्ति, काली, भैरव, रुद्र, शिव की पूजा- जप-तप, यज्ञ, हवन, पूजा-पाठ, ब्राह्मणों का दान, तीर्थ-यात्रा, मन्त्र-जन्त्र और आडम्बरमय कर्मकाण्ड को धर्म माना जा रहा था। जनता में अन्ध- विश्वास फैला था । छुआछूत का भूत सब के सिर पर सवार था । पाँचवीं शताब्दी के चीनी यात्री फ़ाहियान ने काबुल से मथुरा तक महायान- सम्प्रदाय में देखा था। शेष भारत से भी बौद्ध-धर्म मिट चला था। इसके २०० वर्ष बाद ह्ननसाँग ने उत्तर भारत में महायान सम्प्रदाय ज़ोर से फैला हुआ देखा था। उस समय उसने समस्त भारत में शिव की पूजा खूब विस्तार से देखी थी। अयोध्या के निकट उसने दुर्गा के सामने नर-बलि होती देखी थी। बंगाल के प्रसिद्ध सम्राट अशोक ने जो शैव था, बौद्धों समस्त विहारों को तोड़-फोड़कर उनके स्थान पर शिव-मूर्ति की स्थापना की थी, और बौद्धों को या तो क़त्ल करा दिया जाता था, या अत्यन्त कष्ट और यातनाएँ देकर अपने राज्य से निकाल दिया जाता था। वन-सांग ने नरमुण्ड-माल गले में पहिने कापलिक भी देखे थे। उसने शैव और बौद्ध ईरान, अफ़गानिस्तान और मध्य-एशिया में सर्वत्र देखे थे। इसके सिवा अरब के प्रसिद्ध यात्री सुलेमान सौदागर मोहम्मद इब्ने इसहाक अलहीम, अलशहर- -
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