३३२ सहजानन्द, हुलनदास, भीखा, पलटूदास-आदि सन्तों के नाम और उनके सिद्धान्त वैसे ही हैं। बङ्गाल, महाराष्ट्र भी इस धार्मिक क्रान्ति का प्रभाव पाया जाता है। बारहवीं शताब्दी में ही बंगाल में मुसलमानों की दरगाहों पर मीठा चढ़ाना, कुरान पढ़ना, और मुसलमानों के त्यौहार मनाना-इसी प्रकार मुसलमानों के हिन्दू-त्यौहारों का मनाना भी शुरू हो गया था। और एक नए देवता-सत्यपीर-की पूजा भी शुरू हो गई थी, जिसकी स्थापना गौड़- सम्राट् हुसैनशाह ने की थी। १५ वीं शताब्दी के अन्त में चैतन्यप्रभु का जन्म हुआ। उस समय की बङ्गाल की सामाजिक दशा का वर्णन दिनेशचन्द्र सेन ने इस भाँति किया है- "ब्राह्मणों का प्रभुत्व अति कष्टकर हो गया था। कुलीनता के दृढ़ होने साथ-ही जाति-भेद अधिकाधिक बड़ा होता गया । ब्रह्माण लोग कहने के लिये अपने धर्मों में उच्चादर्शों का प्रतिपादन करते थे किन्तु जाति-बंधन के कारण मनुष्य में अन्तर बढ़ता जा रहा था। नीची जातियों के लोग ऊँची जाति के लोगों के स्वेच्छाचार ने नीचे आहें भर रहे थे। इन ऊँची जाति के लोगों ने नीची जातिवालों के लिये विद्या के द्वार बन्द कर रक्खे थे। उन्हें उच्च जीदन में प्रवेश करने की मनाही थी, और नये पौराणिक- ह्मणों का ठेका हो गया था -मानो वह कोई बाजारू चीज़ थी।" चैतन्य ने इस पर गम्भीर विचार किया। उन्होंने मुसलमान-साधुओं से एकेश्वरवाद के तत्व समझे और गुरु-भक्ति और सेवा के उपदेश दिये। सब कर्म-काण्डों को उसने त्याज्य बताया, और हिन्दु-मुसलमान, नीच-ऊँच सभी को दीक्षा दी। चैतन्य के शिष्यों में कार्तबाबा-नामक एक मुसलमान-साधु ने कार्त- भज नानक सम्प्रदाय चलाया। इनके २२ शिष्य 'बाईस फ़क़ीर' नाम से प्रसिद्ध थे, जिनका मुखिया रामादुलाल था। इस मत के लोग एक ईश्वर को मानते थे, गुरु को ईश्वर का अवतार समझते थे, दिन में ५ बार गुरु- मन्त्र का जप करते थे, मद्य-माँस से परहेज करते थे, जात-पात, ऊँच-नीच, हिन्दू-मुसलमान-ईसाई का उनमें भेद न था। सम्प्रदाय के सब लोग साथ मिलकर भोजन करते थे। पर
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