३३८ कि इससे अधिक रत्न कदाचित् ही संसार के किसी बादशाह के पास हों। केबल एक तख्त ही–यदि मैं भूलता न होऊँ-तो, तीन करोड़ के मूल्य का है। ये सब जवाहरात और बहुमूल्य वस्तुएँ राजपूतों के प्राचीन राजवंशों, पठान बादशाहों और अमीरों से लूटी तथा एक लम्बी मुद्दत में इकट्ठी की हुई हैं। प्रत्येक बादशाह के समय राज्य के अमीरों की मामूली वार्षिक नजरों के रुपये, जो उनको अवश्य ही देने पड़ते हैं, उसकी भी संख्या बढ़ती गई है। यह सब खजाना तख्त का माल समझा जाता है, और इनको उपयोग में लाना अनुचित है। यहाँ तक कि स्वयं बादशाह भी-चाहे कैसी ही आवश्यकता क्यों न हो- इसमें से थोड़ा-सा रुपया भी बड़ी कठिनता से प्राप्त कर पाता है। यद्यपि चाँदी-सोना और देशों से घूम-घामकर अन्त में भारतवर्ष में ही आजाता है, तो भी और देशों की अपेक्षा यहाँ अधिक दिखाई नहीं देता, और भारतवासी, दूसरे देशों के निवासियों के समान सन्तुष्ट प्रतीत नहीं होते। इसका कारण यह है, कि प्रथम तो बहुत-सा माल बार-बार लगाये जाने, जैसे औरतों के हाथों की चूड़ियों, कड़ों, कानों की बालियों, नाक की नथों, हाथ की अंगूठियों-आदि के बनाने में, छीज जाता है। इससे भी अधि- कांश ज़रदोज़ी, कारचोबी के काम के कपड़ों-इलायचों, पगड़ियों के तुरों, सुनहरे-रूपहरे कपड़ों, ओढ़नियों, पकटों, मन्दीलों और कमख्वाबों के बनाने में खर्च हो जाता है, जिस पर सुननेवालों को विश्वास नहीं होता। सेनाओं में अमीरों से लेकर सिपाहियों तक, कुछ-न-कुछ मुलम्मेदार और, सुनहरी- रूपहरी चीजें तड़क-भड़क के लिये पहनते हैं। एक अदना सिपाही चाहे कुटुम्ब भूखों मरता रहे—जो एक साधारण बात है-अपनी स्त्रियों के लिये गहने अवश्य गढ़वाएगा। जागीरदारों, प्रान्तीय अधिकारियों और तहसीलदारों का घोर अत्या- चार-जिसे, यदि बादशाह भी रोकना चाहें तो रोक नहीं सकता -विशेषतः उन प्रान्तों में जो राजधानी के निकट नहीं हैं, इतना बढ़ा हुआ है कि खेतिहरों और कारीगरों के पास-उनके जीवन-निर्वाह के लिये कुछ भी नहीं छोड़ता, और वे दीनता तथा दरिद्रता में मरा करते हैं। इसके अति- रिक्त इन्हीं अत्याचारों के फल-स्वरूप उन बेचारों के कोई सन्तान नहीं
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