( ४२ ) ( ४ ) भ्रांत्यापह्नति-दूसरे की म्रांति को मिटाने के लिए जब अप. हति का प्रयोग हो - जैसे हे सखी यह ज्वर नहीं है, मैं काम उवर से तप्त हूँ। ( ५ ) छेकाहनि --- युक्ति से छिपाना-जैसे, मेरे श्रोठों के क्षत प्रिय के किए हुए नहीं हैं वरन् जाड़े की हवा से हो गए हैं । ( ६ ) कैनघापनति-जब एक के मिस दूसरा कार्य होना कहा जाय-जैसे, स्त्री के तीक्ष्ण कटाक्षों के बहाने काम बाण चलाता है। -भेद-ज्ञानपूर्वक उपमय में उपमान की प्रतीति होने को उत्प्रेक्षा कहते हैं । मानो, जाना, मनु, जनु आदि उप्रेक्षावाचक शब्द हैं ! इसके पाँच भेद हैं-वस्तूयेना, हेतूचना, कात्प्रेक्षा, नम्ये त्वेक्षा और सापहवात्प्रेक्षा । प्रथम के उक्तविपया और अनुक्त विषया तथा दूसरे और तीसरे के द्धि विपणा तथा अषिद्ध पिया दो दो भेद हैं । उत्प्रेक्षावाचक शब्द के न होने से गम्योरप्रेक्षा और अपहृति तथा उत्प्रेक्षा के सम्मिश्रण से सापह्नवोरप्रेक्षा होता है। इस ग्रंथ में केवल प्रथम तीन भेद दिए गए हैं, उनके उपभेद नहीं पाये । (१) वस्तूप्रेता-जिसमें एक वस्तु दूसरे के तुल्य दिखलाई जाय । उदा० नेत्र विशेष रूप से बड़े सरस हैं, मानों वे कमल हैं। ( २ ) हेतृप्रेता-जिसमें जिस वस्तु का हेतु न हो उसको उसी वस्तु का हेतु मानना । उदा. मानो कठोर आँगन में चलने के कारण उसके पैर लाल हो गए हैं। ( ३ ) फलोत्प्रेक्षा-- जिसमें जो जिसका फल नहीं है वह फल माना जाय - जैसे, तुम्हारे पैरों की समानता करने के लिए कमल एक पाँव से जल में खड़ा होकर तप करता है। ७१-७८--जिसमें लोकसीमा का उल्लंघन प्रधान रूप से दिखलाया जाय उसे अतिशयोक्ति कहते हैं । उपमेय में उपमान की निश्चयात्मक उसका
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