पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२४३

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भाषा-विज्ञान ढाई अत्यय गुणात्मक (Multiplicative) संख्यावाचक शब्द भी संस्कृत के ही तुल्य हैं । पर हिंदी के शब्दों में सरलता इतनी आ गई है कि हिंदी का पहाड़ा जितनी सुगमता से और जितना शीघ्र पढ़ा जा सकता है उतना संस्कृत का नहीं। पूर्णांक के गुणों के अतिरिक्त यहाँ अर्द्धगुणा और पाइगुणा का भी व्यवहार होता है जैसे दो और आधागुना गुना । इसी से यहाँ पहाड़े के अतिरिक्त पौवा, अद्धा, पौना, सवैया, डेढ़ा, अया, हूँठा, ढौंचा श्रादि का भी बहुत प्रचार है जिससे व्यावहारिक कार्यो में बड़ी सहायता मिलती है। हमारे अव्ययों के अंतर्गत ऐसे शब्द आते हैं जो सब लिंगों और वचनों में एक से रहते हैं। उनके रूप में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। अव्यय वास्तव में भिन्न शब्दों के. (क) क्रियाविशेषण सविभक्तिक रूप हैं जो प्रयोग के कारण मढ़ हो गए है। कई भाषाओं में इनके अनेक उपभेद किए गए हैं, जैसे क्रिया-विशेषण, संबंध-सूचक, समुच्चयबोधक तथा विस्मयादिबोधक । इनमें से सबसे प्रधान क्रिया-विशेषण हैं। यदि हम किम्, दक्षिणा, पना, दिवा, शनै, काम, तत, कुत्र, पत्र, उपाजे, अन्वाजे, हेलया, सहमा, ताक, सुखं, सुखेन आदि शब्दों को लेकर विचार करते हैं तो यह स्पष्ट देख पड़ता है कि ये मय मंना, नर्वनाम या विशेषणों के कर्म, करण, अपादान और अधिकरण कारकों में से किसी न किसी के रूप हैं। प्रारंभ में इन शब्दों के कारक-रूपों का व्याहार वैसे ही होता था जैसे अन्य शब्दों के कारकां का। परंतु क्रियाओं के साथ इनका घनिष्ठ मंसग हो जाने से इनका अपना मूल रूप लुप्त हो गया; और जिस म्प में कियात्रों की विशेष अवस्थाओं के सूचक हो गए, उसी रूप में स्थिर होकर मियाविशेषण अव्यय कालाए। हिंदी में मंज्ञाओं या सर्वनामों में विभक्तिगें लगाकर अब तक क्रियाविशेषण बनाए जाने है जैसे अंग में, इस पर, पागे, पीई, मामने, मयेरे श्रादि पहले विभक्त्यंन मंशाएँ थे। ममा उनी विभक्तियों का लोप हो गया और ये क्रियाविशेषग