पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/२७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अर्थ-विचार 'बना है उसका सप्तमी और पंचमी में सस्मिन् और सस्मात् होता था; तस्मिन् और तस्मात् दूसरे शब्द के रूप थे पर पीछे से सस्मिन् के समान रूप अनुपयोगी हो गए और दूसरे रूप उनके स्थान में रख दिए गए। यदि भारतीय आर्य भाषाओं की क्रिया का इतिहास देखें तो वहाँ यह विनाश की लीला और भी बढ़ी हुई है। जितने रूप वैदिक भाषा में हैं उतने परवर्ती लौकिक संस्कृत में नहीं हैं। जितने रूप संस्कृत में हैं उतने प्राकृत और अपभ्रंश में नहीं हैं। प्राचीन द्विवचन का लोप भी अनुपयोगी रूपों के विनाश का ही उदाहरण है। संज्ञा शब्दों के रूपों के बारे में जब हम कई विभक्तियों में एक- रूपता पाते हैं तो इसे भी विनाश का ही परिणाम समझना चाहिए। [ २ ] पहले खंड में जिन नियमों की चर्चा हुई है उनके उदाहरणों पर विचार करने से प्रकट हो जाता है कि उनमें अर्थ प्रकाशन की प्रवृत्ति ने रूपों और रूपमात्रों को जन्म दिया है, एक विशेष प्रकार की लोक- बुद्धि ने अपनी आवश्यकता पूरी करने के लिये उन शब्दों को संचालित किया है। अब इस खंड में हम शब्द के अर्थों के बढ़ने, घटने, मिटने आदि की व्याख्या करेंगे। वे ही शब्द जो पहले अच्छे अर्थ में आते थे कारणवश बुरे अर्थ में आने लगते हैं और तब उनका वही मुख्यार्थ बन जाता है। उदाह- रार्थ पहले सत् और असत् का अर्थ था 'विद्यमान' और अविद्यमान । उनमें पीछे से भले और बुरे का अर्थ आ गया। यही अर्थ हमारी हिंदी में भी आया है। इसी प्रकार 'इतर का सामान्य अर्थ होता था 'दूसरा' पर अब उससे छोटेपन और अल्पज्ञता का भाव टपकता है। अतिशयोक्ति के कारण प्रायः शब्दों का जोर कम हो जाता है जैसे सत्तानाश, सर्वनाश, निर्जीव जीवन, विराट् सभा, प्रलयकारी दृश्य । १. अर्थापक