पृष्ठ:भाषा का प्रश्न.pdf/१४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सापा.का प्रश्न १४२ आप स्वयं सोचें और विचार करें कि जिस उर्दू में हिंदुत्व खोकर भी हम कामयाब न हुए, हमारी जवान सनद न मानी गई, वही उर्दू आज क्यों और कैसे हमारी मादरी जवान कही जा रही है। उसी उडू को हम कैसे और किस न्याय से मुल्की जबान या राष्ट्रभाषा मान लें? वह तो मुसलमानी भी नहीं, एक जत्थे की बनावटी जबान है जो आज अदबी जबान के रूप मुल्क फल-फूलकर फैल रही है और प्रमादवश अपने इति- हास को छिपाकर राष्ट्रभाषा के आसन पर आसीन होना चाहती है। उसमें हिंदू-मुसलिम एकता नहीं, मुसलमानी नहीं, बल्कि अरबियत और फारसियत का बनावटी या बाहरी दवाव है। उससे हम कहीं अधिक उस फारसी का आदर करते हैं जिसमें हमारी हिंदियत का स्वागत और सम्मान है। जो फारसी अपने राजपद से उतरकर हिंदी से मिलकर, अपने आपको भी हिंदियत से सरस करती है उस फारसी के सामने उस उदू को कौन पूछेगा जिसने हिंदियत को दुतकारना अपना फर्ज बना लिया हो। : उर्दू की गाथा मुसलमानों के पतन और हिंदवी के बहिष्कार की कहानी है। उसकी प्रवृत्ति और प्रगति में द्वेष और विलास का राज्य है, प्रेम का प्रसार या त्याग का इतिहास नहीं। हिंदियत की दृष्टि से विचार करो और गौर से देखें। कि उर्दू का रुख किधर है, किस ओर वह बढ़ी चली जा रही है। कहाँ उसका असली ठिकाना है ? अस्तु, भूलना न होगा कि उर्दू की इस कठोर कैद के कारण उसके लेखकों की दृष्टि व्यापक या बहुमुखी न होकर केवल