पृष्ठ:भूगोल.djvu/७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अङ्क १-४] रीवा राज्य ७३ जलवायु और ऋतुएँ । बग्धा, भेरिया, लोमडी इत्यादि कई प्रकार के जीव-जन्तु यहाँ के जालों में हैं। काली धारी और स्वच्छ सफेद रंग का भारतवर्ष की जाड़ा, गर्मी और वर्षा तीनों प्रधान शेर भी यहाँ पाया जाता है। पक्षियों में पढ़ने वाला बड़ा ऋतुएँ इस राज्य में कड़ाके की होती हैं; इसी लिये वहाँ का जलवायु भी बहुत परिवर्तनशील है । स्थूल रूप से तोता, मोर आदि अनेकों प्रकार के पक्षी यहाँ होते हैं । नदियों दक्षिणी भाग से मध्य भाग का और मध्य भाग से उत्तरी में घड़ियाल, मगर और अनेक प्रकार की मछलियों होती हैं। भाग का जल वायु अच्छा है। दक्षिणी भाग का जल-वायु वर्षा ऋतु में जङ्गलों के कारण प्रायः विषाक्त ( मलेरियल ) निवासी और भाषा हो जाता है। राज्य भर की वर्षा का औसत ४२°२३ इञ्च दक्षिण के जाली प्रान्तों में अब भी गोंड जाति के दक्षिणी भाग का ४६.५६ इंच, मध्यभाग का ४२°२ इश्च प्राचीन निवासियों का राज है। इनके लिए जङ्गलों की और उत्तरी भाग का ४१°५ इंच है। गर्मी का औसत ताप विषाक्त जल-वायु भी अनुकूल ही रहती है। किन्तु पेड़ों की मान दिसम्बर का ८०° और जून का ११५ है। पर छाल की लँगोटी लगाने और तीर-कमान से शिकार करके अमरकण्टक में गर्मियों में भी ठण्डक मालूम होती है । जीवन-निर्वाह करने वाले अब कम पाये जाते हैं। अधिकांश में खेती-बारी करने और कपड़े पहिनने वाले ही हैं । इनका वनस्पति और जीव-जन्तु रंग काला, कद नाटा, नाक चपटी और प्रायः दाढ़ी-मूंछ १३,००० वर्गमील भूमि में ४ हजार ६ सौ वर्गमील रहित होते हैं। इनकी अपनी सभ्यता है। अब तक हम से अधिक जङ्गल है । वर्षा की कमी नहीं है। अतएव लोगों से ये लोग कहीं अधिक स्वतन्त्र थे, पर नई सभ्यता वनस्पतियों की भी इस राज्य में कमी नहीं है। दक्षिणी अथवा गुलामी के विस्तार के साथ ये लोग भी गुलाम भाग की प्रधान वनस्पति साखू या सलई है। इस भाग होते जा रहे हैं। अब तक ये लोग अपनी आवश्यकता के सारे जङ्गल सलई से भरे पड़े हैं। इस की लकड़ी घरों अपने आप पूरी कर लेते थे, पराधीन नहीं रहते थे। में लगाने के लिये बहुत बढ़िया होती है । इसके कपास पैदा करके अच्छा कपडा तयार कर लेते थे, अलसो. अतिरिक्त चार, तेंदू , खैर, आमला, हर्र, बहेड़ा आदि के पेर तिली से तेल निकाल लेते थे, बढ़ई का काम कर लेते थे। भी बहुत अधिक हैं । उत्तरी भाग के जंगलों का प्रधान पेड लोहार के काम के लिये तो इनमें अगरिया एक आति ही सागौन है । यहाँ पर्याप्त परिमाण में उत्तम सागौन पाया होती है। ये लोग धाऊ मिट्टी से लोहा निकाल कर बहुत जाता है । इस का काष्ठ मकान और फर्नीचर सब काम के पक्के हथियार बनाते है, पर बाजारों में विदेशी वस्तुयें लिये बढ़िया होता है । बाँस तो दोनों भागों में बहुत अधिक सस्ती हो जाने से ये लाग भी अपना काम भूल कर पराधीन और बढ़िया होता है। जंगलों से राज्य को अच्छी आमदनी होते जावे । कपास उत्पन्न करने और कातने की इनकी होती है। कला भी लुप्त होती जाती है। अब ये लोग भी बाजारों से जहाँ जङ्गलों और नदियों की ऐसी प्रचुरता हो वहाँ सूत लेकर कपड़ा बनाते हैं अथवा मशीन की दुकली धोतियों जीव-जन्तुओं की प्रचुरता होनी ही चाहिये। दक्षिण-पूर्व में अपनी औरतों को पहनाते हैं । भाषा इनकी बाषेली और इस राज्य का सम्बन्ध छोटानागपुर ( सरगुजा ) के जंगलों छत्तीसगढ़ी हिन्दी का सम्मिश्रण । इस भाग के पूर्वी भाग से है। इसलिये अभी एक शताब्दी भी नहीं हुए यहाँ जंगली में चन्देल राजपूतों की और शेष में बालों को प्रधानता है। हाथी पकड़े जाते थे, पर अब मनुष्यों की अधिकता से उन उत्तरी ( पठारी और कछारी मैदान ) भाग में ब्राह्मण, का आवागमन कम हो गया है । पड़ोस के सरगुजा राज्य में क्षत्रिय, कुरमी, काछी किसान अधिक पाये जाते हैं। इस अब भी हाथी पकड़े जाते हैं। अरना और गोर जाति के बन भाग के पूर्वी भाग में सेंगर राजपूतों की और शेष में बघेलों में भैसों का शिकार अब भी इस भाग में सफलता पूर्वक खेला की प्रधानता है। जाता है। शेरों और चीतों के लिये तो यह राज्य प्रसिद्ध ही भाषा बखेलखण्डी हिन्दी है, पर वह भी तीनों प्राकृतिक है । भालू , सूअर, सामर, रोझ ( नील गाय ), स्याही विभागों में विभिन्न हो गई है। ठेठ दक्षिणी भाग में छत्तीस- काला और गोरा हिरन, सोनहा ( हुदार), गीदा, लकड़ गढ़ी की छाया पाई जाती है । पूर्वी भाग में मिर्जापुरी की -