पृष्ठ:भूतनाथ.djvu/११

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भूतनाथ

करना चाहिए।

गुलाव० । ठीक है, वेशक ऐसा ही चाहिए, परन्तु (कुछ सोच कर) मेरा हाय प्राप के ऊपर कदापि न उठेगा । मुझे अपने जालिम मालिक की तरफ से बदनामी उठाना मजूर है परन्तु आप ऐसे बहादुर और धर्मात्मा के आगे लज्जित होना स्वीकार नही है, हां मैं अपने साथियो को ऐसा करने के लिए मजबूर न करूंगा, ये लोग जो चाहें करें।

यह सुनते ही गुलाबसिंह के साथियों में से एक प्रादमी बोल उठा, "नही नही, कदापि नही, हमलोग आपके विरुद्ध कोई काम नही कर सकते और आपकी ही प्राज्ञापालन अपना धर्म समझते हैं। सज्जनो और धर्मात्मानो की श्राज्ञा पालने का नतीजा कभी बुरा नहीं होता !"

इसके साथ ही गुलाबसिंह के बाकी साथी भी बोल उठे, "वेशक ऐसा हो है, वैशक ऐसा ही है।"

गुलाव० । ( प्रसन्नता से ) ईश्वर की कृपा है कि मेरे साथी लोग भी मेरी इच्छानुसार चलने के लिए तैयार है । ( नौजवान से ) अव श्राप हो प्राज्ञा को जिए कि हम लोग क्या करें ? क्योकि अव भी मैं अपने को श्रापका दास ही समझता हूँ।

नौजवान० । मेरे प्यारे गुलाबसिंह, शावाश | इसमे कोई सन्देह नही 'कि तुम्हारे ऐसे नेक और वहादुर प्रादमो का साथ बडे भाग्य से होता है । मैं तुम्हें अपने अधीन पाकर बहुत ही प्रसन्न था और अब भी यही इच्छा रहती है कि ईश्वर तुम्हें मेरा साथी बनावे, मगर क्या करूं लाचार हू, क्योकि प्राज मेरा वह समय नहीं है। प्राज मुसीवत के फन्दे में फंस जाने से में इस योग्य नही रहा कि तुम्हारे ऐसे वहादुरो का साथ . .. ... .. (लम्बी नाम लेकर) अस्तु ईश्वर की मर्जी, जो कुछ वह करता है अच्छा हो करता है, कदाचित् इसमें भी मेरी कुछ भलाई ही होगी। (कुछ सोच कर ) मैं तुम्हें क्या बताऊँ कि क्या करो? तुम्हारे मालिक ने वेशक घोया साया कि मेरो गिरफ्तारी के लिए तुम्हें भेजा, इतने दिनों तक साथ