पृष्ठ:भूषणग्रंथावली.djvu/२२५

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[ १३४ ] कुंभ कुञ्जर के भौन को भजाने अलि छूटे लट केस के। दल के दरारे' हुते कमठ करारे फूटे केरा कैसे.पात विहराने फन सेस के ॥३॥ प्रेतिनी पिसाचऽरु निसाचर निसाचरिहु मिलि मिलि आपुस मैं गावत वधाई है। भैरौं भूत प्रेत भूरि भूधर भयंकर से जुत्थ जुत्थ जोगिनी जमाति जुरि आई है । किलकि किलकि कै कुतू- हल करति काली, डिम डिम डमरू दिगंवर वजाई है। सिवा पूँछ सिव सों समाज आजु कहाँ चली, काहू पै सिवा नरेस भृकुटी चढ़ाई है ? ॥४॥ . बद्दल न होहिं दल दृच्छिन घमंड माहिं घटा हू न होहिं दल सिवाजी हँकारी के। दामिनी दमंक नाहिं खुले खग्ग बीरन के, वीर सिर छाप लखु तीजा असवारी के।। देखि देखि मुगलों की हरमैं भवन त्यागें उझकि उझकि उठे वहत बयारी के । दिल्ली मति भूली कहैं बात घनघोर घोर वाजत नगारे जे सितारे गढ़ धारी के ॥५॥ बाजि गजराज सिवराज सैन साजतहि दिली दिलगीर दसा के कुंजर कसमसाने गंग भने"। परंतु शब्दों एवं वाक्य-रचना से यह भूषण कृत अँचता है। इसके अतिरिक्त गंगजी अकवर शाह के समय में थे, पर भाऊसिंह सन् १६५८ ईसवी में दूंदी की गद्दी पर बैठे; सो यह कवित्त गंगकृत नहीं हो सकता। १ सेना के दरेरे ( दवाव ) से। २ संभवतः तीज का चंद्रमा ।