सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/१३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
५३
भ्रमरगीत-सार
 

जौ तुम पद्मपराग छांड़िकै करहु ग्राम-बसबास[]
तौ हम सूर यहौ करि देखैं निमिष छांड़हीं पास॥१२८॥


राग नट
ऊधो! जानि परे सयान।

नारियन को जोग लाए, भले जान सुजान॥
निगम हूँ नहिं पार पायो कहत जासों ज्ञान।
नयनत्रिकुटी जोरि संगम जेहि करत अनुमान॥
पवन धरि रबि-तन निहारत, मनहिं राख्यो मारि।
सूर सो मन हाथ नाहीं गयो संग बिसारि॥१२९॥


राग धनाश्री
ऊधो! मन नहिं हाथ हमारे।

रथ चढ़ाय हरि संग गए लै मथुरा जबै सिधारे॥
नातरु कहा जोग हम छांड़हि अति रुचि कै तुम ल्याए।
हम तौ झकति[] स्याम की करनी, मन लै जोग पठाए॥
अजहूँ मन अपनो हम पावैं तुमतें होय तो होय।
सूर, सपथ हमैं कोटि तिहारी कहौ करैंगी सोय॥१३०॥


ऊधो! जोग सुन्यो हम दुर्लभ।

आपु कहत हम सुनत अचंभित जानत हौ जिय सुल्लभ॥
रेख न रूप बरन जाके नहिं ताकों हमैं बतावत।
अपनी कहो[] दरस वैसे को तुम कबहूँ हौ पावत?
मुरली अधर धरत है सो, पुनि गोधन बन बन चारत?
नैन बिसाल भौंह बंकट[] करि देख्यो कबहुँ निहारत?


  1. बसबास=निवास।
  2. झकति=झींखती हैं।
  3. अपनी कहो=अपना हाल बताओ।
  4. बंकट=टेढ़ी, वक्र।