पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
[९]

अत्याचार 'सभ्य अत्याचार' जान पड़ता है। शक्ति, शील और सौंदर्य भगवान् की इन तीन विभूतियोँ में से सूर ने केवल सौंदर्य तक ही अपने को रखा है जो प्रेम को आकर्षित करता है। शेष दो विभूतियोँ को भी लेकर भगवान् ने लोक-रंजनकारी स्वरूप की पूर्ण प्रतिष्ठा हमारे हिंदी-साहित्य में गो० तुलसीदासजी ने की। श्रद्धा या महत्त्व बुद्धि पुष्ट करने के लिए कृष्ण की शक्ति या लौकिक महत्त्व की प्रतिष्ठा में आग्रह न दिखाने के कारण ही सूर की उपासना सख्य भाव की कही जाती है।

पारिवारिक और सामाजिक जीवन के साथ सूरदास द्वारा वर्णित कृष्णचरित्र का जो थोड़ा बहुत संबंध दिखाई पड़ता है उसका सम्यक् स्फुरण नहीं हुआ है। रहा प्रेम-पक्ष; वह ऐकांतिक है। सूर का प्रेम-पक्ष लोक से न्यारा है। गोपियोँ के प्रेम-भाव की गंभीरता आगे चलकर उद्धव का ज्ञान-गर्व मिटाती हुई दिखाई पड़ती है। वह भक्ति की एकांत साधना का आदर्श प्रतिष्ठित करती हुई जान पड़ती है, लोकधर्म के किसी अंग का नहीं। सूरदास सच्चे प्रेम-मार्ग के त्याग और पवित्रता को ज्ञान-मार्ग के त्याग और पवित्रता के समकक्ष रखने में खूब समर्थ हुए हैं; साथ ही उन्होंने उस त्याग को रागात्मिका वृत्ति द्वारा प्रेरित दिखाकर भक्ति मार्ग या प्रेम-मार्ग की सुगमता भी प्रतिपादित की है।

तुलसी के समान लोकव्यापी प्रभाव वाले कर्म और लोक-व्यापिनी दशाएँ सूर ने वर्णन के लिए नहीं ली हैं। असुरोँ के अत्याचार से दुखी पृथ्वी की प्रार्थना पर भगवान् का कृष्णावतार हुआ, इस बात को उन्होंने केवल एक ही पद में कह डाला है। इसी प्रकार कागासुर, बकासुर, शकटासुर आदि को हम लोक-पीड़कों के रूप में नहीं पाते हैं। केवल प्रलंब और कंस के वध पर