'भ्रमरगीत' सूरसागर के भीतर का एक सार रत्न है। समग्र सूरसागर का कोई अच्छा संस्करण न होने के कारण 'सूर' के हृदय से निकली हुई अपूर्व रसधारा के भीतर प्रवेश करने का श्रम कम ही लोग उठाते हैं। मैंने सन् १९२० में भ्रमरगीत के अच्छे पद चुनकर इकट्ठे किए और उन्हें प्रकाशित करने का आयोजन किया। पर कई कारणों से उस समय पुस्तक प्रकाशित न हो सकी। छपे फार्म कई बरसों तक पड़े रहे। इतने दिनों पीछे आज 'भ्रमरगीत-सार' सहृदय-समाज के सामने रखा जाता है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि 'सूरसागर' के जितने संस्करण उपलब्ध हैं उनमें से एक भी शुद्ध और ठिकाने से छपा हुआ नहीं है। सूर के पदों का ठीक पाठ मिलना एक मुश्किल बात हो रही है। 'वेंकटेश्वर प्रेस' का संस्करण अच्छा समझा जाता है पर उसमें पाठ की गड़बड़ी और भी अधिक है। उदाहरण के लिए दो पदों के टुकड़े दिए जाते हैं––
(क) अति मलीन बृषभानु-कुमारी।
अधोमुख रहति, उर्ध नहिं चितवति ज्यों गथ हारे थकित जुआरी॥
(ख) मृग ज्यों सहत सहज सर दारुन, सन्मुख तें न टरै।
समुझि न परै कौन सचु पावत, जीवत जाय मरै॥