राग मलार
मधुकर, मन सुनि जोग डरै।
तुमहू चतुर कहावत अति ही इतो न समुझि परै॥
और सुमन जो अनेक सुगंधित, सीतल रुचि सो करै।
क्यों तू कोकनद बनहिं सरै[१] औ और सबै अनरै[२]?
दिनकर महाप्रतापपुंज-वर, सबको तेज हरै।
क्यों न चकोर छाँड़ि मृग-अंकहि[३] वाको ध्यान करै?
उलटोइ ज्ञान सबै उपदेसत, सुनि सुनि जीय जरै।
जंबू-वृक्ष कहौ क्यों, लंपट! फलवर अंब फरै॥
मुक्ता अवधि मराल प्रान है जौ लगि ताहि चरै।
निघटत निपट, सूर, ज्यों जल बिनु व्याकुल मीन मरै॥३६३॥
बिरचि[४] मन बहुरि राच्यो[५] आय।
टूटी जुरै बहुत जतनन करि तऊ दोष नहिं जाय॥
कपट हेतु को प्रीति निरंतर नोइ[६] चोखाई[७] गाय।
दूध फटे जैसे भइ काँजी, कौन स्वाद करि खाय?
केरा पास ज्यों बेर निरंतर हालत दुख दै जाय[८]।
स्वाति-बूँद ज्यों परे फनिक-मुख परत बिषै ह्वै जाय॥
ऐसी केती तुम जौ उनकी कहौ बनाय बनाय।
सूरदास दिगंबर-पुर में कहा रजक-व्यौसाय॥३६४॥