पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/२२

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(४) पाहुनी करि दै तनक मह्यौ।
आरि करै मनमोहन मेरो, अंचल आनि गह्मो।
व्याकुल मथत मथनियाँ रीती, दधि भ्वैं ढरकिं रह्यो॥

हार-जीत के खेल में बालकों के 'क्षोभ' के कैसे स्वाभाविक वचन सूर ने रखे हैं––

खेलत मैं को काको गोसैयाँ।
हरि हारे, जीते श्रीदामा, बरबस ही कत करत रिसैयाँ॥
जाति-पाँति हमतें कछु नाहि, न बसत तुम्हारी छैयाँ॥
अति अधिकार जनावत यातें अधिक तुम्हारे हैं क्छु गैयाँ॥

अब यहाँ पर थोड़ा इसका भी निर्णय हो जाना चाहिए कि इन बाल-चेष्टाओं का काव्य-विधान में क्या स्थान होगा। वात्सल्य रस के अनुसार बालक कृष्ण आलंबन होंगे और नंद या यशोदा आश्रय। अतः ये चेष्टाएँ अनुभाव के अंतर्गत आती हैं; पर आलंबनगत चेष्टाएँ उद्दीपन के ही भीतर आ सकती हैं। इससे यह स्पष्ट है कि ऐसी चेष्टाओं का स्थान भाव-विधान के भीतर है। उन्हें अलंकार-विधान के भीतर घसीटकर 'स्वभावोक्ति' अलंकार कहना मेरी समझ में ठीक नहीं।

बाल-लीला के आगे फिर उस गोचारण का मनोरम दृश्य सामने आता है जो मनुष्य जाति की अत्यंत प्राचीन वृत्ति होने के कारण अनेक देशों में काव्य का प्रिय विषय रहा है। यवन देश (यूनान) के 'पशु-चारण काव्य' (Pastoral Poetry) का मधुर संस्कार युरोप की कविता पर अब तक कुछ न कुछ चला ही जाता है। कवियों को आकर्षित करनेवाली गोप-जीवन की सबसे बड़ी विशेषता है प्रकृति के विस्तृत क्षेत्र में विचरने के लिए सबसे अधिक अवकाश। कृषि, वाणिज्य आदि और व्यवसाय जो आगे