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भ्रमरगीत-सार
 


राग केदारो

उन में पाँच दिवस जो बसिये।
नाथ! तिहारी सौं जिय उमगत, फेरि अपनपो कस ये?
वह लीला बिनोद गोपिन के देखे ही बनि आवै।
मोको बहुरि कहाँ वैसो सुख, बड़भागी सो पावै॥
मनसि, बचन, कर्मना, कहत हौं नाहिंन कछु अब राखी।
सूर काढ़ि डार्‌यो हौं ब्रज तें दूध-माँझ की माखी[१]॥३८५॥


चित दै सुनौ, स्याम प्रबीन!
हरि तिहारे बिरह राधे मैं जो देखी छीन।
कहन को संदेस सुंदरि गवन मो तन कीन॥
छुटी छुद्रावलि[२], चरन अरुझे, गिरी बलहीन।
बहुरि उठी सँभारि, सुभट ज्यों परम साहस कीन॥
बिन देखे मनमोहन मुखरो सब सुख उनको दीन।
सूर हरि के चरन-अंबुज रहीं आसा-लीन॥३८६॥


माधव! यह ब्रज को ब्योहार।
मेरो कह्यो पवन को भुस भयो, गावत नंदकुमार॥
एक ग्वारि गोधन लै रेंगति, एक लकुट कर लेति।
एक मंडली करि बैठारति, छाक बांटि कै देति॥
एक ग्वारि नटवर बहु लीला, एक कर्म-गुन गावति।
कोटि भांति कै मैं समुझाई नेकु न उर में ल्यावति॥
निसिबासर ये ही ब्रत सब ब्रत दिन दिन नूतन प्रीति।
सूर सकल फीको लागत है देखत वह रसरीति॥३८७॥


  1. दूध...माखी=दूध की मक्खी की तरह निकाल दिया।
  2. छुद्रावलि=क्षुद्रघंटिका, करधनी।