पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/३०

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मेरे नैना बिरह को बेलि बई।
सींचत नीर नैन के सजनी मूल पताल गई॥
बिगसति लता सुभाय आपने, छाया सघन भई।
अब कैसे निरुवारौं, सजनी! सब: तन पसरि छई॥

आलंबन-पक्ष में सूर के नेत्र-वर्णन उपमा उत्प्रेक्षा आदि से भरी रूप चित्रण की शैली पर ही हैं; जैसे––

देखि, री! हरि के चंँचल नैन।
खँजन मीन मृगज चपलाई नहिंँ पटतर एक सैन॥
राजिवदल इँदीवर, सतदल कमल, कुसेसय जाति।
निसि मुद्रित, प्रातहि वै बिगसत, ये बिगसत दिन राति॥
अरुन असित सित झलक पलक प्रति को वरनै उपमाय।
मनौ सरस्वति गंग जमुन मिलि आगम कीन्हों आय॥

आलँबन में स्थित नेत्र क्या क्या करते हैं, इसका वर्णन सूर ने बहुत ही कम किया है। पिछले कुछ कवियों ने इस पक्ष में भी चमत्कार-पूर्ण उक्तियाँ कही हैं। जैसे, सूर ने तो "अरुन, असित सित झलक" पर गंगा यमुना और सरस्वती की उत्प्रेक्षा की है, पर गुलाम नबी (रसलीन) ने उसी झलक की यह करतूत दिखाई है––

अमिय, हलाहल, मद भरे, स्वेत, स्याम, रतनार।
जियत, मरत, झुकि झुकि परत, जेहि चितवत इक बार॥

मुरली पर कही हुई उक्तियाँ भी ध्यान देने योग्य हैं, क्योंकि उनसे प्रेम की सजीवता टपकती है। यह वह सजीवता है, जो भरे हुए हृदय से छलक कर निर्जीव वस्तुओं पर भी अपना रंग चढ़ाती है। गोपियों की छेड़छाड़ कृष्ण ही तक नहीं रहती, उनकी मुरली तक भी––जो जड़ और निर्जीव है––पहुँचती है। उन्हें वह मुरली कृष्ण के संबंध से कभी इठलाती, कभी चिढ़ाती और कभी प्रेम-