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पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/४४

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प्रफुलित कमल, निमिष नहिं ससि डर, गुँजत निगम सुबास॥
जेहि सर सुभंग मुक्ति मुक्ता-फल,सुकृत अमृत रस पीजै।
सो सर छाँड़ि कुबुद्धि बिहंगम! इहाँ कहा रहि कीजै?॥

पर एक व्यक्तवादी सगुणोपासक कवि की उक्ति होने के कारण इस चित्र में वह रहस्यमयी अव्यक्तता या धुंँधलापन नहीं है। कवि अपनी भावना को स्पष्ट और अधिक व्यक्त करने के लिए जगह जगह आकुल दिखाई पड़ता है। इसी से अन्योक्ति का मार्ग छोड़ जगह जगह उसने रूपक का आश्रय लिया है। इसी अन्योक्ति का दीनदयालगिरि जी ने अच्छा निर्वाह किया है:––

चल चकई! वा सर विषम जहँ नहिं रैनि बिछोह।
रहत एकरस दिवस ही सुहृद हंस-संदोह॥
सुहृद हंस-संदोह कोह अरु द्रोह न जाके।
भोगत सुख-अंबोह, मोह दुख होय न ताके॥
बरनै दीनदयाल भाग्य बिनु जाय न सकई।
पिय-मिलाप नित रहै ताहि सर चल तू चकई॥

इसी अन्योक्ति-पद्धति को कवींद्र रवींद्र ने आज कल अपने विस्तृत प्रकृति-निरीक्षण के बल से और अधिक पल्लवित करके जो पूर्ण और भव्य स्वरूप प्रदान किया है वह हमारे नवीन हिंदी-साहित्य-क्षेत्र में 'गाँव में नया नया आया ऊँट' हो रहा है। बहुत से नवयुवकों को अपना एक नया ऊँट छोड़ने का हौसला हो गया है। जैसे भाँवों या तथ्यों की व्यंजना के लिए श्रीयुत रवींद्र प्रकृति के क्रीड़ास्थल से ले कर नाना मूर्त्त स्वरूप खड़ा करते हैं वैसे भावों को ग्रहण करने तक की क्षमता न रखनेवाले बहुतेरे ऊटपटाँग चित्र ख़ड़ा करने और कुछ असंबद्ध प्रलाप करने को ही 'छायावाद'