पृष्ठ:भ्रमरगीत-सार.djvu/६७

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कृष्ण की संबंध भावना स्थान को भी कुछ अनुरंजक रूप प्रदान करती है––

विलग जनि मानहु, ऊधो प्यारे!
वह मथुरा काजर की कोठरि जे आवहिं ते कारे॥
तुम कारे, सुफलक सुत कारे, कारे धुप भँवारे।

गोपियाँ कहती हैं––'तुम्हारा दोष नहीं। वह स्थान ही ऐसा हो रहा है जहाँ से तुम आ रहे हो। एक कृष्ण से वहाँ ऐसी कृष्णता छा रही है कि तुम काले हो; अक्रूर जो आए थे वे भी ऐसे ही काले थे; और यह घूमता हुआ भौंरा भी (जो बहुत दिन वहाँ न रहा होगा, घूमता फिरता कभी जा पड़ा होगा) वैसा ही काला है।

उद्धव अपने ज्ञानोपदेश की भूमिका ही बाँध रहे थे कि गोपियों के तन में कुछ कुछ 'शंका' होने लगी––

मधुकर! देखि स्याम तन तेरो।
हरिमुख कौ सुनि मीठी बातैं डरपत हैं मन मेरो॥
अब लौं कौन हेतु गावत है हम्ह आगे यह गीत।
सूर इते सों गारि कहा है जौ पै त्रिगुन-आतीत॥

'त्रिगुणातीत' होंगे, हमें इससे क्या? तू क्यों बार बार यह कहता है? कुछ भेद जान नहीं पड़ता।

उद्धव को कभी एक भोलाभाला आदमी ठहराकर गोपियाँ अनुमान करती हैं कि कहीं श्रीकृष्ण ने यह संदेसा इनके हाथ भेजकर हँसी न की हो और ये इसे ठीक मानकर वक वक कर रहे हों। यही पता लगाने के लिए वे उद्धव से पूछती है––"अच्छा, यह तो बताओ कि जब वे तुम्हें संदेश कहकर भेजने लगे थे तब कुछ मुस्कराए भी थे?"